30 साल की मेहनत के बाद बुद्धा मुस्कराए
वैज्ञानिकों ने रूस से लौटने के बाद पूर्णिमा नाम का रिएक्टर स्थापित किया। लेकिन, कुछ साल बाद ही वह क्रिटिकल स्टेज पर पहुँच गया। उस समय देश न तो विदेशी मोर्चे पर स्थिर था न ही आन्तरिक रूप से। वह एक युद्ध चीन से पहले ही हार चुका था। ऊपर से, चीन तब तक परमाणु शक्ति भी बन चुका था। भाभा चाहते थे किसी भी हालत में परमाणु परिक्षण किया जाए। वहीं नेता बंटे हुए थे।
कोई नहीं जानता था, साल 1945 मानव इतिहास के पन्नों में गहरी स्याही से लिखा जाएगा! द्वितीय विश्वयुद्ध इस तरह समाप्त होगा, किसने सोचा था! अमेरिका ने जापान पर दो परमाणु बम गिराकर पूरी दुनिया को हिला दिया था। भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था। लेकिन, भारत में परमाणु को समझने की शुरुआत सन् 1944 में शुरू हो गई थी। महान भारतीय वैज्ञानिक होमी जहाँगीर भाभा ‘टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च’ की नींव रख चुके थे।
भारत आज़ाद हो चुका था। सन् 1948 में जवाहर लाल नेहरु के इशारे पर वैज्ञानिक अनुसन्धान विभाग की देखरेख में भारतीय परमाणु उर्जा कमीशन की शुरुआत हुई। इसका मुख्य उद्देश्य था कि शोध सही दिशा में आगे बढे और सरकारी फण्ड की कोई कमी न हो। 1962 तक आते-आते बड़े पैमाने पर अनुसंधान रिएक्टरों की स्थापना हो चुकी थी।
सन् 1962 में, भारत-चीन युद्ध ने भारत को बड़ा झटका दिया। उसके दो साल बाद ही चीन ने भी परमाणु परिक्षण कर अपना दम दिखा दिया। अब सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और चीन भी परमाणु शक्ति बन चुके थे।
इधर, भारत ने इंदिरा गांधी के रूप में नया प्रधानमंत्री देखा। अपने पिता, जवाहर लाल नेहरु से अलग इंदिरा गांधी अपनी कूटनीतिक समझ थी। सन् 1967 के बाद से काम में तेज़ी आने लगी। उस समय इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव रहे प्रेम नारायण हक्सर ने गांधी को कहा, “हमें कुछ वैज्ञानिकों को रूस भेजना चाहिए ताकि वे परमाणु रिएक्टरों को क़रीब से समझ सके।” तब रूस और भारत क़रीबी माने जाते थे। वैज्ञानिकों ने रूस से लौटने के बाद पूर्णिमा नाम का रिएक्टर स्थापित किया। लेकिन, कुछ साल बाद ही वह क्रिटिकल स्टेज पर पहुँच गया। उस समय देश न तो विदेशी मोर्चे पर स्थिर था न ही आन्तरिक रूप से। वह एक युद्ध चीन से पहले ही हार चुका था। ऊपर से, चीन तब तक परमाणु शक्ति भी बन चुका था। भाभा चाहते थे किसी भी हालत में परमाणु परिक्षण किया जाए। वहीं नेता बंटे हुए थे। एक गुट कहता कि पड़ोसी देशों से तभी बेहतर होंगे जब हमारे पास परमाणु बम होगा – ज़ाहिर है, इशारा चीन की तरफ़ ही था। वहीं लाल बहादुर शास्त्री इस निर्णय के ख़िलाफ़ थे। उनका मानना था ऐसा कर भारत महात्मा गांधी के मूल्यों को त्याग देगा। निर्णय इंदिरा गांधी के हाथ में था।
एक बार फिर भारत को जंग में कूदना पड़ा। सन् 1971 की लड़ाई में पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए। लेकिन, भारत को समझ आ गया था कि यदि नक़्शे पर बने रहना है तो जल्द ही बड़ा फ़ैसला लेना होगा। 75 वैज्ञानिकों की एक टीम, जिनमें होमी सेठना, पी.के. अयंगर, राजगोपाल चिदंबरम जैसे वैज्ञानिक शामिल थे और जिनका नेतृत्व राजा रमन्ना के हाथ में था, सेनाध्यक्ष गोपाल गुरुनाथ बेवुर और पश्चिमी कमांड के लेफ्टिनेंट जनरल, इंदिरा गांधी और उनके बेहद क़रीबी – जिनमें पी.एन. हक्सर, दुर्गा धर, के अलावा कोई नहीं जानता था कि आख़िर क्या पक रहा है – यहाँ तक कि रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री भी नहीं।
18 मई, 1974 के दिन सुबह 8:05 मिनिट पर, थार के निर्जन इलाक़े – पोकरण में – ज़मीन से 107 मीटर नीचे 1.25 मीटर चौड़ा और 1400 किलो वज़नी बम फटा। घटना स्थल से क़रीब 5 किलोमीटर दूर एक मचान पर खड़े रमन्ना और साथी वैज्ञानिक के पास कुछ समय बाद एक झोंका आया। रमन्ना ख़ुशी के मारे मचान से उतरने लगे। धरती का हिलना थमा नहीं था और वे गिर पड़े। लेकिन, अगले ही पल उठे और ज़ोर से चिल्लाए – “बुद्धा इज़ स्माइलिंग”
इंदिरा गांधी दिल्ली में एक अहम बैठक ले रही थी। तभी पी.एन.धर के पास एक फ़ोन कॉल आया। वे तुरंत उस ओर दौड़ी और पूछा, “क्या हुआ?” पी.एन. धर बोले, “सब ठीक है, मैडम” । अगले ही पल इंदिरा गांधी के चिंतित चेहरे पर एक विजयी मुस्कान तैर रही थी।
उस समय, सरकार की मंशा कुछ और थी। वह नहीं चाहती थी दुनिया के सामने भारत की छवि ऐसे देश के रूप में उभरे जो परमाणु हथियार का परिक्षण एक युद्ध सामग्री के रूप में कर रहा हो। एक और कारण, शांति और अहिंसा जैसे मूल्यों का देश पर गहरा प्रभाव था। तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू, ख़ुद गांधी के क़रीबी रहे थे और उनके प्रधानमंत्री रहते भारत का यह रास्ता चुनना, राजनीतिक रूप से एक ग़लत संदेश होता। ऐसा नहीं था कि भारतीय परमाणु कार्यक्रम के अध्यक्ष होमी भाभा के नेतृत्व पर किसी को शक था। बात, ताकत की नहीं नीयत की थी और भारत अपने मूल्यों में बंधा हुआ था।