अनोखी होली
भारत में होली का त्योहार बेहद धूमधाम से मनाया जाता है। देश के अलग-अलग हिस्सों में रंगों के इस त्योहार को अलग-अलग तरीके से मनाने की परंपरा है। कोई होली पर गुलाल उड़ाता है तो कोई चलाता है रंगों की पिचकारी। फाल्गुन महीने की पूर्णिमा को मनाया जाने वाले रंगों के त्यौहार होली को लेकर भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मान्यताएं हैं, और इसे मनाने के तौर-तरीक़े भी काफी अलग है। होली त्यौहार भक्त प्रल्हाद के भक्ति, और बुराई पर अच्छाई की जीत का है, इस बात से तो लगभग देश का हर शख्स वाकिफ होगा। लेकिन देशभर में होली मनाने के तरीके भी अलग अलग होते हैं। ऐसे में आज हम जानेंगे कि भारत में कहां-कहां और किस प्रकार की अनोखो होली मनाई जाती हैं।
वृंदावन में ‘फूलों की होली’
वृंदावन में एकादशी के साथ ही होली का त्यौहार शुरू हो जाता है। एकादशी के दूसरे दिन से ही कृष्ण और राधा से जुड़े सभी मंदिरों में फूलों की होली खेली जाती है। फूलों की होली में ढेर सारे फूल एकत्रित कर एक-दूसरे पर फैंके जाते हैं। ‘राधे-राधे’ की गूंज के बीच आसमान से होली पर बरसते पुष्पों का नजारा द्वापर युग की याद दिला देता है। वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर की होली की छटा अनोखी होती है। बांके बिहारी जी की मूर्ति को मंदिर से बाहर रख दिया जाता है, मानो बिहारी जी स्वयं ही होली खेलने आ रहे हों। यहां होली सात दिनों तक चलती है। सबसे पहले फूलों से, इसके बाद गुलाल, सूखे रंगों और गीले रंगों से होली खेली जाती है।
बरसाने की ‘लट्ठमार होली’
ब्रज के बरसाना गांव की ‘‘लट्ठमार होली’ विश्व भर में प्रसिद्ध है। यह होली से कुछ दिन पहले खेली जाती है। यहां होली को श्री कृष्ण और राधा के प्रेम से जोड़ कर देखा जाता है। कहा जाता है कि श्री कृष्ण और उनके दोस्त, राधा और उनकी सहेलियों को तंग करते थे जिस पर उन्हें मार पड़ती थी। इसीलिए यहां होली पर मुख्यतरू नंद गांव के पुरुष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंद गांव के थे और राधा बरसाने की थीं। नंद गांव की टोलियां जब पिचकारियां लिए बरसाना पहुंचती हैं तो ढोल की थाप पर बरसाने की महिलाएं पुरुषों को लाठियों से पीटती हैं। पुरुषों को इन लाठियों से बचना होता है और साथ ही महिलाओं को रंगों से भिगोना होता है। इस दौरान हजारों की संख्या में लोग उन पर रंग फेंकते हैं।
पंजाब का ‘होला महल्ला’
सिखों के पवित्र धर्मस्थान- श्री आनन्दपुर साहिब में होली के अगले दिन से लगने वाले मेले को ‘होला महल्ला’ कहते हैं। दशम गुरु गोबिन्द सिंह जी ने स्वयं इस मेले की परम्परा शुरू की थी। पंज प्यारे जुलूस का नेतृत्व करते हुए रंगों की बरसात करते हैं और निहंगों के अखाड़े नंगी तलवारों के करतब दिखा कर साहस, पौरुष और उल्लास का प्रदर्शन करते हैं। यह जुलूस हिमाचल प्रदेश की सीमा पर बहती एक छोटी नदी चरण गंगा के तट पर समाप्त होता है। होला महल्ला के पीछे ऐतिहासिक कहानी यह है कि मुगलों का सामना करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने अपने लाडलों को युद्ध का प्रशिक्षण दिया था जिसमें वे बनावटी युद्ध कर हल्ला मचाते थे। इस प्रशिक्षण की शुरुआत होली के दिन ही हुई थी, इसलिए इसे होला महल्ला नाम दिया गया है।
बिहार की ‘फागु पूर्णिमा’
फागु मतलब लाल रंग और पूर्णिमा यानी पूरा चांद। बिहार में होली के मौके पर गाए जाने वाले फगुआ की गायन शैली की अपनी अलग पहचान है। इसलिए यहां होली को फगुआ नाम से भी जानते हैं। बिहार और इससे लगे उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे हिंदी नववर्ष के उत्सव के रूप में मनाते हैं। यहां होली का त्यौहार तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन रात में होलिका दहन होता है। अगले दिन इससे निकली राख से होली खेली जाती है, जो धुलेठी कहलाती है और तीसरा दिन रंगों का होता है। होली के दिन लोग ढोलक की धुन पर नृत्य करते, लोकगीत गाते हुए एक-दूसरे को रंग से सराबोर करते हैं। राज्य में कई स्थानों पर कीचड़ से होली खेली जाती है तो कई स्थानों पर ‘कपड़ा फाड़’ होली खेलने की भी परंपरा है।
महाराष्ट्र की ‘रंग पंचमी’
महाराष्ट्र में होली को रंगपंचमी के नाम से भी जाना जाता है। होली में यहां लोग पांच दिन तक रंगों में सराबोर रहते हैं और पंचमी के दिन भी जमकर होली खेलते हैं। लोग होली पर एक-दूसरे से मिलने उनके घर जाते हैं और काफी समय मस्ती में बीतता है। गुजरात व महाराष्ट्र में इस मौके पर जगह-जगह पर दही-हांडी फोड़ने का कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच दही की मटकिया लगाई जाती हैं। यह भगवान कृष्ण के गोपियों की मटकी फोड़ने से प्रेरित है। चारों ओर ‘गोविन्दा आला रे आला, ज़रा मटकी संभाल ब्रिज बाला’ की गूंज सुनाई देती है।
मध्यप्रदेश में भगौरिया
मध्य प्रदेश के भील होली को भगोरिया कहते हैं। यहां के भील युवकों के लिए होली अपने लिए प्रेमिका को चुनकर भगा ले जाने का त्योहार है। होली से पहले हाट के अवसर पर हाथों में गुलाल लिए भील युवक ‘मांदल’ की थाप पर सामूहिक नृत्य करते हैं। नृत्य करते-करते जब युवक किसी युवती के मुंह पर गुलाल लगाता है और वह भी बदले में गुलाल लगा देती है तो मान लिया जाता है कि दोनों विवाह सूत्र में बंधने के लिए सहमत हैं। युवती द्वारा प्रत्युत्तर न देने पर युवक दूसरी लड़की की तलाश में जुट जाता है।