अभेद्य रणथम्भौर दुर्ग जिसे कोई नहीं जीत सका
रणथम्भौर युद्ध से पहले, हम्मीर सिंह ने अपनी रानियों और राजकुमारियों को बोला - युद्ध के बाद अगर काले झंडे फहराने लगे तो केसरिया झंडे पहनकर जौहर कर लेना और केसरिया रंग आसमान में उड़ता दिखे तो समझ जाना जीत हो चुकी है. भयंकर युद्ध में खिलजी की हार हुई. लेकिन, वे तीन गद्दार सेनापति हाथ में काला झंडा लिए किले की तरफ़ दौड़ने लगे. यह देखकर किले में बंद स्त्रियों को लगा राणा की हार हो गयी है. तीनों सेनापतियों के पीछे राणा हम्मीर सिंह अपना घोड़ा लेकर दौड़े. लेकिन, देर हो चुकी थी. रानियाँ अग्नि जौहर और राजकुमारियाँ जल जौहर ले चुकी थी.
राजस्थान का दूसरा सबसे बड़ा क़िला, रणथम्भौर दुर्ग. कहते हैं वह अंत तक अजेय बना रहा. चंबल और बनास के बीच, घने जंगल में बना यह अभेद्य क़िला 1600 साल पुराना बताया जाता है. चारों ओर पहाड़ियों से घिरा होना और घने जंगल से ढके रहने के कारण 5वीं सदी में महाराजा जयंत सिंह द्वारा निर्मित इस दुर्ग को बख्तरबंद भी कहा जाता है. एक समय इसका नाम रणस्तम्भौर हुआ करता था. किले की सामने वाली पहाड़ी रण का मैदान हुआ करती थी और किला जिस पहाड़ी पर बना था वह एक ही पहाड़ी थी, जिसे स्तम्भ कहा जाता था. इन दोनों पहाड़ियों के बीच एक बड़ी धारा बहती थी, जिसके कटाव के कारण वहाँ भंवर जैसा बनने लग जाता है. इन तीनों ही ख़ूबियों के कारण इस जगह का नाम रणस्तंभौर हो गया था. लेकिन, जब अंग्रेज़ भारत आए तो उन्हें इतना मुश्किल नाम बोलने में दिक्कत होती थी और इस तरह रणस्तंभौर अपभ्रंश होकर बन गया, रणथम्भौर.
लंबे समय तक गुमनाम रहे इस किले पर 12वीं सदी में खिलजी वंश की स्थापना करने वाले जलालुद्दीन खिलजी ने हमला कर दिया. वह अफ़ग़ान से हिन्दुस्तान आया था. तब इस जगह प्रतापी शासक राणा हम्मीर सिंह के हाथ में कमान थी. लेकिन, सुल्तान इस बख्तरबंद को नहीं जीत सका और वापस दिल्ली लौट गया. कुछ समय बाद, सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी को उसी के भतीजे, अलाउद्दीन खिलजी ने मार डाला और इसी के साथ दिल्ली में तख्तापलट हो गया. अब नया सुल्तान था अलाउद्दीन खिलजी.
आख़िरी युद्ध से पहले, हम्मीर सिंह ने अपनी रानियों और राजकुमारियों को बोला कि युद्ध के बाद अगर काले झंडे फहराने लगे तो केसरिया झंडे पहनकर जौहर कर लेना और केसरिया रंग आसमान में उड़ता दिखे तो समझ जाना जीत हो चुकी है. भयंकर युद्ध में खिलजी की हार हुई. लेकिन, वे तीन सेनापति हाथ में काला झंडा लिए किले की तरफ़ दौड़ने लगे. यह देखकर अन्दर किले में बंद औरतों को लगा राणा की हार हो गयी है. तीनों सेनापतियों के पीछे राणा हम्मीर सिंह अपना घोड़ा लेकर दौड़े. लेकिन, देर हो चुकी थी. किले में बंद रानियों ने अग्नि जौहर और राजकुमारियों ने जल जौहर कर लिया था.
अलाउद्दीन खिलजी को जब इस बात का पता लगा कि मोहम्मद शाह रणथम्भौर में छिपा है तो एक विशाल सेना लेकर उसने रणथम्भौर पर चढ़ाई कर दी. कई दिन तक डेरा डालने के बाद भी जब वह किले का एक पत्थर तक नहीं उखाड़ सका, तब उसने चालाकी से काम लेने की सोची. उसने राणा को ख़त लिखा जिसमें लिखा था - हुज़ूर, मैं आपसे संधि करना चाहता हूँ. आपकी शरण में आना चाहता हूँ. हम्मीर सिंह समझते देर नहीं लगी कि डाल में कुछ तो काला है. यह कोई चाल भी हो सकती है. उन्होंने ख़ुद जाने के बजाए अपने तीन सेनापति रणमल, रंतिपाल और सामंत भोजराज को खिलजी के सामने भेजा. खिलजी के सामने पहुँचने पर उन तीनों को बैठाया गया और बोला आप रणथम्भौर पर जीत दिलवा दीजिए, समझिए कि रणथम्भौर आपका. यह सुनकर तीनों लालच में आ गए.
हम्मीर सिंह ने तीनों सेनापतियों को किले की शुरुआत में ही पकड़ लिया और अगले ही पल उनके सिर कलम कर दिए. लेकिन, जब हम्मीर किले में पहुँचे तो देखा कि जौहर की लपटें आसमान छू रही थीं. यह देखकर हम्मीर ने अपना माथा पकड़ लिया. वे अपने इष्ट देव महादेव के सामने बैठ गए. ऐसा कहते हैं महादेव ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम नये सिरे से शुरुआत करो. सिंह सुवन, सत्पुरुष वचन, कदली फलै इक बार, तिरिया तेल हमीर हठ, चढ़ै न दूजी बार... लेकिन, युद्ध जीतने के बावजूद भी हम्मीर हार गए थे. उन्होंने अपना हठ नहीं छोड़ा और वहीं अपनी तलवार निकाली और अपना सिर महादेव के सामने रख दिया. अभेद्य क़िला, अजेय ही रहा लेकिन, गद्दारी के कारण खिलजी के हाथों में चला गया.
अलाउद्दीन खिलजी का एक मंत्री था, मोहम्मद शाह. मोहम्मद शाह और खिलजी की एक बेग़म के बीच अनैतिक संबंध स्थापित हो गए थे. इससे ग़ुस्सा खाए खिलजी ने मोहम्मद शाह को देश निकाला दे दिया और साथ में यह भी घोषणा की, कि जिसने भी शाह को पनाह दी, उसके ख़िलाफ़ जंग छेड़ दी जाएगी. हिन्दुस्तान-भर में भटकने के बाद, मोहम्मद शाह रणथम्भौर पहुँचा. उस समय आख़िरी चौहान राजा हम्मीर देव बागडोर संभाल रहे थे. इतिहास में हठी हम्मीर के नाम से मशहूर हुए राणा शरणागत को शरण देना, अपना धर्म समझता था.