एप्पल कंपनी के मालिक स्टीव जॉब्स
जब वे गाँव-गाँव भटक रहे थे तब उन्होंने भारतीयों में एक बहुत ही ख़ास बात ध्यान से देखी. उन्होंने देखा कि भारतीय चीज़ों को सिर्फ़ तार्किक या बैद्धिक नज़रिए से ही नहीं देखते हैं, उन्होंने पाया कि वे भावनाओं की भी उतनी ही इज्ज़त करते हैं. उनके लिए दिल से निकली आवाज़ को सुनना भी उतना ही ज़रूरी है. हालाँकि, उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है, “ भारत में हुए मेरे अनुभव से मैंने सोचना शरू किया कि नीम करौली बाबा या कार्ल मार्क्स ने दुनिया को उतना नहीं बदला जितना थॉमस अल्वा एडिसन ने.”
स्टीव जॉब्स का जीवन इतना रोचक रहा है कि उन पर दर्जनों फ़िल्में, डॉक्यूमेंट्रीज़, बायोग्राफीज़ बन चुकी है. 24 फ़रवरी 1955 को कैलिफोर्निया में जन्में स्टीव जॉब्स को उनके बायलोजिकल माता-पिता जोआन शिबल और अब्दुल फ़तह जन्दाली ने उन्हें जन्म के कुछ ही महीने बाद छोड़ दिया. कुछ समय बाद, उन्हें पॉल और क्लारा जॉब्स ने गोद लिया. उसके बाद का जीवन स्टीव जॉब्स का उन्हीं के साथ बीता. पॉल कोस्ट गार्ड मेकेनिक थे और क्लारा एक अकाउंटेंट. मेकेनिक होने की वजह से पॉल के घर में छोटी-बड़ी मशीनें पड़ी रहती थी. पॉल अक्सर स्टीव को मशीनों के बारे में व्यावहारिक जानकारियाँ बताते थे और उधर, क्लारा स्टीव की अकादमिक पढ़ाई का ध्यान रखती थीं.
रीड कॉलेज में दाख़िला लेने के तुरंत बाद ही स्टीव को अपना कॉलेज पैसों के अभाव में छोड़ना पड़ा. कॉलेज च्चोड़ने के बाद उन्होंने एक कंपनी में बतौर विडियो गेम डिज़ाइनर के रूप में काम करना शुरू किया. वहाँ उनकी मुलाक़ात रोबर्ट से हुई, जिन्होंने स्टीव को एक बार भारत घूम आने को कहा. उस समय स्टीव कुछ परेशान थे और जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को समझना चाहते थे. रोबर्ट ने स्टीव को प्रोत्साहित करते वक़्त भारतीय दर्शन का इस तरह वर्णन किया कि स्टीव ने उसी समय मन बना लिया कि वे जल्दी ही भारत की यात्रा पर निकलेंगे. रोबर्ट एक साल पहले ही भारत रहकर आए थे. वे वहाँ नैनीताल के पास नीम करौली के बाबा के आश्रम में उनके भक्त बन गए थे. स्टीव ने भी ऐसा ही करने की ठानी. उन्होंने भारत के बारे में जो कुछ भी सुना, उसे लेकर वे बहुत उत्साहित थे. उन्होंने उस कंपनी में कुछ समय और काम किया ताकि कुछ पैसे जमा हो सके. सन् 1974 में स्टीव भारत के लिए निकल गए.
भारत में उनका पहला पड़ाव दिल्ली के पहाड़गंज का एक होटल था. लेकिन, यहाँ से भारत को लेकर जो उनके मन में तसवीरें बनी थीं, वे धीरे-धीरे बदलने लगीं. उन्हें बताया गया कि भारतीय दिल के बहुत अच्छे हैं. लेकिन, दिल्ली की जिस होटल में वे ठहरे वहाँ उनके साथ एक धोखा हो गया. उन्होंने पीने के लिए फ़िल्टर पानी माँगा लेकिन, उन्हें नार्मल पानी ही दे दिया गया. उस पानी को पीने से स्टीव की तबियत बिगड़ गयी और कुछ दिन उन्हंु दवाइयों पर निकालने पड़े. हालाँकि, तब तक स्टीव में बाहरी रूप से बदलाव दिखने लग गया था. उन्होंने खादी के कपड़े पहनने शुरू कर दिए. ठीक होने के बाद वे हरिद्वार के लिए निकल गए. इस दौरान उन्होंने भारतीयों को क़रीब से देखा. उन्हें भारतीयों के चिंतन और रहन-सहन में तालमेल नहीं दिखा. उन्होंने जितना सोचा था, भारत में उससे कहीं ज़्यादा ग़रीबी दिखी. खैर, कुछ दिन हरिद्वार में रहने के बाद, वे अपने दोस्त के कहे अनुसार, कैंचीधाम – नीम करौली के बाबा के आश्रम पहुँच गए. वहाँ पहुँचने पर आश्रम पता चला कि बाबा की कुछ महीनों पहले ही मृत्यु हो गई थी. आश्रम भी लगभग वीरान पड़ा मिला. यह सब देखकर स्टीव जॉब्स बेहद निराश हो गए. उन्होंने नदी के किनारे होते हुए एक और प्रचलित बाबा हरियाखान के आश्रम पहुँचे. स्टीव को किसी ने कहा कि वे बहुत पहुँचे हुए बाबा हैं लेकिन, कुछ दिन गुज़ारने और बाट करने पर स्टीव को लगा कि उनके उत्तर यहाँ नहीं मिलने वाले हैं. उन्होंने आश्रम छोड़ दिया. इस दौरान वे गाँव-गाँव घूमे. भारत और भारत के लोगों को क़रीब से जानने की कोशिश की. हालाँकि, वे जिस मकसद से यहाँ भारत गए, वह तो पूरा नहीं हुआ लेकिन, अपनी 7 महीने की भारत यात्रा के आख़िरी दिनों में वे बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित हो चुके थे. उन्होंने अमेरिका लौटने से पहले बौद्ध धर्म अपना लिया. अपना सिर मुंडवा लिया और पूरी तरह से भारतीय कपड़ों को पहनना शुरू कर दिया. जब वे अमेरिका पहुँचे तो उनके दोस्त स्टीव के बदले रूप को देखकर चौंक गए.
जो सोचकर वे भारत गए थे. वैसा कुछ तो उन्हें दिखा-मिला नहीं. लेकिन, जब वे गाँव-गाँव भटक रहे थे तब उन्होंने भारतीयों में एक बहुत ही ख़ास बात ध्यान से देखी. उन्होंने देखा कि भारतीय चीज़ों को सिर्फ़ तार्किक या बैद्धिक नज़रिए से ही नहीं देखते हैं, उन्होंने पाया कि वे भावनाओं की भी उतनी ही इज्ज़त करते हैं. उनके लिए दिल से निकली आवाज़ को सुनना भी उतना ही ज़रूरी है. हालाँकि, उन्होंने अपनी जीवनी में लिखा है, “ भारत में हुए मेरे अनुभव से मैंने सोचना शरू किया कि नीम करौली बाबा या कार्ल मार्क्स ने दुनिया को उतना नहीं बदला जितना थॉमस अल्वा एडिसन ने.”
फिर भी, जो अनुभव उन्हें आश्रम से इतर, भारतीय गाँवों में घूमने और तरह-तरह के लोगों से मिलने पर मिला, उसका ज़िक्र अक्सर करते रहे. उन्होंने यह भी कहा कि वह अनुभव एप्पल को शुरू करने में बहुत काम आया. आज स्टीव जॉब्स हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन, उनकी सोच, उनका दुनिया को देखने का नज़रिया और जीवन को अपने ढंग से जीने की इच्छा ने कई लोगों का जीवन बदला है. उन्हीं के शब्दों में अगर कहें तो -“Don’t let the noise of others’ opinions drown out your own inner voice.”