कन्यारकली: मां भगवती की भक्ति और मार्शल आर्ट की कहानी
हमारे भारत में दैवी की स्तुति करने के लिए बहुत सारे नृत्य अनुष्ठान किए जाते हैं लेकिन एक नृत्य ऐसा भी है, जिसका उदय युद्ध के दौरान के हुआ था। इस नृत्य को कन्यारकली के नाम से जाता है। आधुनिक समय में इसे मार्शल आर्ट की एक अद्भुत कला के रुप में भी जाना जाता है। केरल के भगवती मंदिरों में इस नृत्य कला को किया जाता है। इस नृत्य में भक्ति और कला का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है।
कन्यारकली मां भगवती की भक्ति और मार्शल आर्ट के मिश्रित स्वरुप का प्रतीक है। इसका उदय मार्शल आर्ट की खोज के दौरान हुआ था। इसका सम्बंध केरल के पलक्कड़ जिले में स्थित अलाथपुर और चित्तूर तालुक गांवों से है। इस नृत्य को मां भगवती के मंदिरों में दैवीय अनुष्ठान के समय किया जाता हैं। इस नृत्य को आमतौर पर गांव के विशु उत्सव के समय आयोजित किया जाता है। इस नृत्य की खास बात यह है कि इसे केरल में रहने वाले अधिकतर नायर समुदाय द्वारा आयोजित किया जाता है। कहा जाता है कि इस मार्शल आर्ट की खोज इस इलाके के लोगों ने उस समय की थी जब इनके ऊपर पड़ोसी कोंगनाड इलाके के लोग निरंतर आक्रमण करते रहते थे। भारत में हमें यह खासियत देखने को मिलती है कि यहां नृत्य केवल कला तक सीमित नहीं रहता बल्कि इसका संबंध भक्ति, आस्था, परम्परा के साथ भी रहता है। यहां नृत्य के समय भी कलाकार के भीतर दैवीय शक्तियों के प्रति एक अटूट प्रेम और आस्था देखने को मिलती है। कन्यारकली एक ऐसा नृत्य है जिसमें दैवीय भक्ति के प्रति शुद्ध प्रेम का गुण भी है और स्वयं की रक्षा करने हेतु मार्शल आर्ट का गुण भी। इस कला में आपको युद्ध कलाओं की तेज गति के साथ उत्साह, भक्ति, आत्म रक्षा और हास्य के रंग देखने को मिलते हैं। इस नृत्य अनुष्ठान को मां भगवती के मंदिरों में किया जाता है। इसे लगातार चार रातों तक आयोजित किया जाता है। कुछ गांवों में यह लगातार तीन रातों तक ही किया जाता है। प्रत्येक रात अलग-अलग प्रदर्शन किए जाते है जैसे: इरवक्कली, आंडिकूत्त, वल्लोन और मलमा। इस नृत्य में पुरूषों की संख्या लगभग छह से बीस तक हो सकती है। अनुष्ठान के आखिरी दिन महिलांए भी नृत्य में शामिल होती हैं।
सबसे पहले मां भगवती के मंदिर में भक्तजन एकत्रित होते हैं और पुरुष नृत्यकार गोलाकार नृत्य करना शुरू कर देते हैं, जिसे वट्टकली कहा जाता है। वट्टकली के बाद पुरट्टू एक घण्टे तक किया जाता है। पुरट्टू केरल और तमिलनाडु की जातियों के रीति-रिवाजों और मार्शल आर्ट के रौद्र स्वरुप को भी दर्शाता है। एक विशेष रूप से बने चौकोर मंच पर किया जाता है जिसे पंडाल कहा जाता है। यह मंदिर या उसके परिसर के सामने बनाया जाता है। इसके मध्य में एक जलता हुआ दीपक है और इसकी छत नौ स्तंभों पर टिकी हुई है। गायक मंच के केंद्र पर खड़े होते हैं और नृत्यकार पंडाल की परिधि पर गोलाकार तरीके से नृत्य करते हैं। गाने मलयायम भाषा और तमिल भाषा में गाए जाते है। लय प्रदान करने के लिए चेंदा, मद्दलम, इलाथलम और चेंगिला जैसे संगीत वाद्ययंत्रों का उपयोग किया जाता है। इस नृत्य लाठियों और तलवारों के साथ प्रदर्शन किया जाता है जो एक रौद्र स्वरुप का प्रतीक है।
अंतत: हमें यही संदेश मिलता है कि कन्यारकली में भक्ति, कला, युद्ध, हास्य सभी का गुण हैं। सबसे बड़ी बात यह हैं कि केरल के इलाकों में आज भी यह नृत्य अनुष्ठान किया जाता है, जो इस बात का प्रमाण है भले ही भारत में सोच-विचार, संस्कृति और परम्परांए अलग-अलग है। लेकिन एक गुण सभी के भीतर मौजूद है जो सभी को एक-दूसरे से विभिन्न होकर भी एक बनाता है। हम सभी के भीतर भक्ति, आस्था और ईश्वर के प्रति एक समर्पण भाव मौजूद है जो भारत के लोगों को एक-दूसरे से विभिन्न होकर भी एक बनाता है। यहां संस्कृति और परम्परा, नृत्य-संगीत, युद्ध और प्रेमी-युगलों के प्रेम में आपको ईश्वरीय भक्ति जरुर नज़र आएगी।