कोया जनजाति के संघर्ष की कहानी
कोया जनजाति तेलंगाना की सबसे बड़ी आदिवासी जनजाति हैं जिसने अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए गोंडी भाषा दिवस मनाया। इन्होंने पहल भी की कि गोंडी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में जल्द से जल्द शामिल किया जाए। आइए जानते है इस जनजाति की परम्परांए,सभ्यता और संस्कृति जिसे संरक्षित करने हेतु ये लोग आज भी जागरुक हैं।
हमारे भारत में कुछ जनजातियां ऐसी भी रही हैं जो समय के साथ हाशिये पर चली गईं, उनकी संस्कृति और भाषा का वाजूद वक्त के साथ खत्म हो गया। वहीं दूसरी ओर कुछ जनजातियां भी ऐसी भी रहीं जिन्होंने अपनी संस्कृति और भाषा को बनाए रखने के लिए समाज में बड़े कदम भी उठाए। उन्हीं में से एक जनजाति है कोया जनजाति, जो तेलांगना, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा में पाई जाती हैं। ये कोया भाषा बोलते है जो गोंडी से संबधित द्रविड़ भाषा है। ये लोग भले ही जड़-जंगल से जुड़ी हुई आदिवासी जनजाति हो, लेकिन ये लोग अपनी संस्कृति, सभ्यता और भाषा को बचाए में सक्षम हैं। आंध्र प्रदेश की कोया जनजाति तब चर्चा का विषय बनी इन्होंने संस्कृति और भाषा को बचाने के लिए गोंडी भाषा दिवस मनाया। इसके अलावा कोया जनजाति के लोगों ने ये भी मांग उठाई कि गोंडी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाए, जो बेहद सराहनीय कदम था। जहां एक ओर कुछ जनजातियां सिर्फ अपना भरण-पोषण करने तक ही सीमित रह गई हैं वहीं कोया जनजाति हमारे समाज में मिसाल हैं जो अपनी जड़, जमीन, संसकृति और भाषा आधुनिकरण के आगे लुप्त होते नहीं देखना चाहते हैं।
गोंडी लैंग्वेज डे 21 जुलाई को मनाते हुए कोया जनजाति के लोगों ने अपनी संस्कृति और भाषा को संरक्षण देने की प्रतिज्ञा ली। कोया इस दिवस को मनाने का निर्णय आदिवासी संक्षेम परिषद द्वारा आयोजित दिल्ली कन्वेंशन 2018 में लिया गया था। यह परिषद देश के दक्षिणी , मध्य और उत्तरी भागों में 7 राज्यों में फैले गोंडी भाषा और संस्कृति को संरक्षण देने की दिशा में सक्रिय होकर काम कर रही है। कोया ट्राइबल सोसाइटी भी इसी दिशा में काम कर रही है। इसके अलावा इन लोगों ने अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग भी उठाई है। आज के दौर में आधुनिकरण के कारण जनजातियां हाशिये पर खिसकती जा रही हैं अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कोई कदम नहीं उठा रहे हैं। ऐसे में इस जनजाति द्वारा उठाई जा रही मांग काबिल-ए-तारीफ है।
इनकी जीवनशैली की बात की जाए तो कोया जनजाति अर्थिक रुप से काफी पिछड़ी हुई हैं। इनके पास भी रोजगार,स्वास्थ्य और शिक्षा का अभाव है। कोया कृषि पर निर्भर हैं। वे ज्वार, रागी, बाजरा और अन्य मोटे अनाज उगाते हैं। इसके अलावा ये लोग छोटे-मोटे लघु वस्तुंए बनाकर अपना गुजारा कर लेते हैं। ये मजदूरों की तरह भी कम वेतन में गांव के अमीर वर्ग के लोगों के यहां नौकरी कर लेते हैं। आर्थिक रुप से पिछड़े होने के कारण इनके बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं और इनकी महिलाओं को एनीमिया की समस्या का भी सामना करना पड़ता है। इनकी मान्यताओं के बारें में बात की जाए तो भगवान भीम, कोर्रा राजुलु, मामिली और पोटाराजू कोया जनजाति के लोग अपना देवता मानते हैं। उनके मुख्य त्योहार विज्जी पांडम और कोंडला कोलुपु हैं। विवाह की बात की जाए तो बाल विवाह को इस जनजाति के लोग स्वीकार नहीं करते हैं। अमीर वर्ग के लिए दुल्हन मिल पाना आसान हैं लेकिन गरीब वर्ग के लोगों को दुल्हन मिल पाना इस जनजाति में कठिन हैं।
इस जनजातियों के लोगों को समाज में कठिन संघर्षों का सामना करना पड़ रहा हैं। जैसे- अपनी संस्कृति और भाषा को बचाए रखना, गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, विस्थापन की समस्या का सामना कर रहे हैं। आंध्र प्रदेश राज्य सरकार द्वारा प्रस्तावित पोलावरम परियोजना के तहत काफी कोया जनजाति के लोगों को अपनी जड़, जमीन से हाथ धोना पड़े। अंतत: यहीं संदेश दिया जा सकता है कि आज के समय में भी कुछ कोया जनजाति के लोग ऐसे है जो संघर्षमय जीवन होने के बावजूद भी बड़े-बड़े पदों तक पहुंचे है। इनकी भाषा आज भी खतरे में है लेकिन ये इसे बचाए रखने के लिए आज भी प्रयास कर रहे हैं।