गीता प्रेस गोरखपुर की कहानी

भारत के सबसे पुराने प्रकाशकों में से एक गीता प्रेस की नींव जयदयाल गोयंदका के निर्देशन में परोपकारी व्यापारियों द्वारा उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में रखी गई थी। गीता प्रेस की शुरुआत ‘सनातन धर्म’ के सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए की थी। लेकिन आज गीता प्रेस हिंदू धार्मिक ग्रंथों का प्रकाशन करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी प्रकाशक संस्था है।
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गीता प्रेस का प्रतीक चिन्ह | स्रोत: फेसबुक

गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना चूरू राजस्थान निवासी सेठजी जयदयाल गोयंदका ने 29 अप्रैल 1923 को गोरखपुर में की थी। पैतृक व्यापार के अलावा अध्यात्म व साधु-संतों में उनकी श्रद्धा थी। व्यापार कार्य के लिए जब वह कोलकाता जाते थे तो वहां सत्संग भी करते थे। सत्संगियों की संख्या बढ़ने पर किराए पर एक मकान लिया गया और उसे 'गोविंद भवन' नाम दिया गया। सत्संग में जब सत्संगियों को स्वाध्याय के लिए गीता की आवश्यकता हुई किंतु शुद्ध पाठ व सही अर्थ की गीता उस समय सुलभ नहीं थी, इसलिए सेठजी ने गीता की अन्वय, पदच्छेद सहित टीका तैयार करके 'गोविंद भवन' की ओर 'गीता' को छपवाना शुरू किया।

छपाई के बीच समस्या ये पैदा हुई कि मुद्रण में त्रुटियां होने लगीं, मशीन बार-बार रोककर संशोधन करना पड़ता था। यह प्रेस मालिक के अनुकूल नहीं था, इसलिए गोयंदका जी ने गीता के प्रकाशन के लिए स्वयं का प्रेस लगवाने की सोची। गोरखपुर के घनश्याम दास जालान व महावीर प्रसाद पोद्दार ने उन्हें गोरखपुर में प्रेस लगाने का प्रस्ताव दिया, और उसका नाम गीताप्रेस रखा गया। जो पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर के शेखपुर इलाके में स्थित है।

गीता प्रेस ने अपने प्रकाशनों के माध्यम से भारत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने में जो भूमिका निभाई है, वह अनमोल व अद्वितीय है। जब इसकी स्थापना हुई थी, तब इसका प्रयोजन यही था कि किस तरह से पवित्र भगवद गीता को उसके शुद्ध स्वरूप में सही अर्थों के साथ और बहुत ही कम दाम पर आम जनों तक पहुंचाया जाए, जो कि उस समय उपलब्ध नहीं था।

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी | स्रोत: कारवां मगज़ीन

हनुमान प्रसाद पोद्दार जिन्हें ‘भाईजी’ के नाम से जाना जाता है, वे गीता प्रेस की प्रसिद्ध मासिक पत्रिका 'कल्याण' के संस्थापक और आजीवन संपादक रहे। 17 अप्रैल, वर्ष 1965 को 'गोयंदका' के शरीर त्यागने के बाद उन्होंने गीताप्रेस की बागडोर संभाल ली। इस देश में और दुनिया के हर कोने में रामायण, गीता, वेद, पुराण और उपनिषद से लेकर प्राचीन भारत के ऋषियों -मुनियों की कथाओं को पहुँचाने का मत्त्वपूर्ण कार्य गीता प्रेस के आदि-सम्पादक हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने किया। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर एक सेवक और निष्काम कर्मयोगी की तरह भाईजी ने हिंदू संस्कृति की मान्यताओं को घर-घर तक पहुँचाने में जो योगदान दिया है, इतिहास में उसकी मिसाल मिलना ही मुश्किल है। उन्होंने अनेक ग्रंथों का संपादन करते हुए उनकी टिकाएं भी लिखी, ताकि पाठकों को आसानी से पुस्तकें समझ में आ जाए।

हिन्दी में 'कल्याण' ने आध्यात्मिक पत्रिकाओं में सबसे पुरानी और सबसे लम्बी अवधि तक छपने वाली पत्रिका के रूप में कई सम्मान प्राप्त किये। पत्रिका का प्रकाशन 86 वर्ष पूर्व मुम्बई में शुरू हुआ था और वर्तमान में सबसे अधिक बिकने वाली तथा सबसे पुरानी आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक पत्रिका बन गयी है। 'कल्याण' पत्रिका के प्रकाशन के बाद यह महसूस किया गया कि अंग्रेजी मासिक पत्रिका भी प्रकाशित किया जाना आवश्यक है, इसीलिए वर्ष 1934 में जनवरी से 'कल्पतरु' का प्रकाशन शुरू किया गया जिसके प्रथम संपादक 'चिम्मनलाल गोस्वामी' जी थे।

गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित "कल्याण" (हिंदी) और "कल्याण-कल्पतरु" (अंग्रेज़ी) की ऐसी विलक्षण मासिक पत्रिका हैं जो जीवन में आस्तिकता के संस्कार विकसित करने के लिए ही समर्पित हैं। गीता प्रेस की मान्यता है पत्रकारिता एक व्यवसाय नहीं बल्कि एक पुनीत मिशन है और इन पत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्री से पाठकों को अपने आध्यात्मिक उत्थान में सहायता मिल सकती है। इनमें भक्ति, ज्ञान, योग, धर्म, वैराग्य, अध्यात्म, ध्यान, बेहतर जीवन-उद्देश्य, सात्विक-विचार, श्रेष्ठ कर्म आदि अनेकानेक विषय शामिल होते हैं।

पहले मुख्य रूप से हिन्दी तथा संस्कृत भाषा में गीता प्रेस का साहित्य प्रकाशित होता था, किन्तु अहिन्दी भाषी लोगों की असुविधा को देखते हुए बाद में तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी, कन्नड़, बँगला, गुजराती, असमिया, तथा ओड़िआ आदि प्रान्तीय भाषाओं में भी पुस्तकें प्रकाशित की जाने लगीं और इस योजना से लोगों को लाभ भी हुआ है। अंग्रेजी भाषा में भी कुछ पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। इसलिए अब न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी यहाँ की घार्मिक पुस्तकें बड़ी  श्रद्धा के साथ पढ़ी जाती हैं।

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गीता प्रेस का मुख्य द्वार | स्रोत: गीता प्रेस डॉट ओआरजी

गीता प्रेस का मुख्य प्रवेश द्वार भी अपनी कलात्मकता के लिए प्रसिद्ध है। गीता द्वार के निर्माण में देश की गौरवमयी प्राचीन कला और प्राचीन मंदिरों से प्रेरणा ली गयी है। इसका हर पहलू भारत की समृद्ध स्थापत्य विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। प्रवेश द्वार के स्तंभ प्रसिद्ध "गुफा-मंदिर एलोरा" के स्तंभों पर आधारित हैं। श्रीकृष्ण और अर्जुन के रथ के पीछे मध्य भाग में गोलाकार खोखला, "अजंता गुफा मंदिर" के मुख की याद दिलाता है। प्रवेश द्वार का शिखर दक्षिण भारत के "मीनाक्षी मंदिर" के मुख्य भाग का स्मरण करता है। "लीला चित्र मंदिर" में भगवान श्रीराम और भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं के परम रमणीय 684 चित्रांक के अतिरिक्त समय समय पर गीता प्रेस से प्रकाशित श्रेष्ठ धार्मिक चित्रकारों के द्वारा बनाये हुए अनेक हस्तनिर्मित चित्र हैं। इस भव्य प्रवेश द्वार का उद्घाटन 29 अप्रैल, 1955 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने किया था। उन्होंने द्वार को देख इसकी खूब प्रशंसा की थी।

गीता प्रेस उत्पाद प्रबंधक लालमणि तिवारी ने कहा कि "गीता प्रेस के जैसा द्वार कहीं और नहीं है। गीता प्रेस दर्शन के लिए जो भी पर्यटक आते हैं वह इसके द्वार को देखकर इसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। कहीं न कहीं यहां की धार्मिक एवं आध्यात्मिक पुस्तकों के साथ यह द्वार भी गीता प्रेस की पहचान है।"

गीता प्रेस की लोकप्रियता की सबसे बड़ी वजह यह है कि इसकी किताबें काफी सस्ती होती हैं, साफ सुथरी प्रिंटिंग और फोंट का आकार भी काफी बड़ा होता है जो सभी उम्र के लोगों के लिये पढ़ने योग्य है। 'गीता' के प्रकाशन के लिये प्रारंभ हुआ यह मिशन आज रामचरित मानस, हनुमान चालीसा सहित अनेक धार्मिक प्रकाशनों के लिये जाना जाता है।

गीता प्रेस अन्य प्रकाशनों से अलग है क्योंकि यह सरकार या किसी भी अन्य व्यक्ति या संस्था से किसी तरह का कोई अनुदान नहीं लेता है। यहां की पुस्तकें लागत से 40 से 90 प्रतिशत कम दाम पर बेची जाती हैं, और पूरे देश में 42 रेलवे स्टेशनों पर स्टॉल और 20 से अधिक शाखाएं हैं। गीता प्रेस अपनी पुस्तकों में किसी भी जीवित व्यक्ति का चित्र नहीं छापती है और न ही इसमें कोई विज्ञापन प्रकाशित होता है।

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कानपुर रेलवे स्टेशन पर 'गीता प्रेस' का एक आउटलेट | स्रोत: विकिपीडिया

गीता प्रेस के परिसर में हिंदू धार्मिक पुस्तकों का एक पुस्तकालय भी मौजूद है। इस पुस्तकालय में विभिन्न भाषाओं में टीकाओं के साथ गीता की पुरानी और दुर्लभ प्रतियां हैं जो हर साल "लीला चित्र मंदिर" में गीता जयंती दिवस पर प्रदर्शित की जाती हैं। अन्य दुर्लभ ग्रंथ भी यहाँ उपलब्ध हैं।

1923 में गीताप्रेस की स्थापना हुई और लागत मूल्य से भी कम कीमत पर शुद्ध और सरल भाषा में घर-घर गीता उपलब्ध कराई गई। सच तो ये है कि इस संस्था ने लोगों के दिलों में अपनी जगह बना रखी है। गीता प्रेस मुनाफा कमाने वाले प्रकाशन की तरह नहीं बल्कि लोगों को सही राह दिखलाने वाली एक सामाजिक संस्था है। गीता प्रेस अपने इस उद्देश्य पर आज भी काम कर रहा है, इसके अलावा गीता प्रेस ने अन्य धार्मिक पुस्तकों को भी सस्ते दर पर पूरे विश्व में पहुंचाने का अभियान शुरू किया, जो अनवरत जारी है। यही वजह है कि आज दुनिया भर में इस प्रेस की एक अलग पहचान है। गीता प्रेस साल 2023 में प्रकाशन के क्षेत्र में 100 सालों का सफ़र पूरा करने जा रहा है।

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