शिखरजी बनाम बूढ़ा पहाड़ : झारखंड के सबसे ऊँचे पारसनाथ पहाड़ पर विवाद क्यों

जैन धर्म का तीर्थराज ‘सम्मेद शिखर’ पिछले दिनों अचानक चर्चा में आ गया।  झारखंड सरकार ने इसे इको-टूरिज्म केंद्र बनाने की योजना बनाई। धर्मस्थल को पर्यटन केंद्र में बदलने का जैन संगठनों ने देशव्यापी विरोध शुरू कर दिया। वे कहते हैं कि पर्यटन केंद्र बनाने से इसकी पवित्रता भंग होगी। अब भारत सरकार ने इसे पर्यावरण-संवेदी क्षेत्र घोषित कर दिया। लेकिन आदिवासी इसे अपनी आस्था का केंद्र ‘मराँग बुरु’ यानी बूढ़ा पहाड़ कहते हैं। जानिए सम्मेद शिखर की अहमियत, दोनों पक्षों के नजरिए से:
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झारखंड के गिरिडीह जिले में पारसनाथ पहाड़ की चोटी पर बना सम्मेद शिखर तीर्थ। (चित्रः इंटरनेट)

झारखंड में सबसे ऊँचा पहाड़ पारसनाथ है। यह गिरिडीह जिले में है। लगभग 4480 फुट ऊँचा। इसी की चोटी पर जैन धर्म का सर्वोच्च तीर्थ शिखरजी बना है। यहीं बीस तीर्थंकर मोक्ष पाने आए। इसी महत्व के कारण इसे सम्मेद शिखर भी कहते हैं। पूरा पहाड़ 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के नाम से पारसनाथ कहलाता है।

पूरे पारसनाथ पहाड़ को पवित्र बताकर एक ओर जैन समुदाय ने इस पर नियंत्रण मांगा है तो दूसरी ओर इस क्षेत्र के आदिवासी भी इस पर अपना नैसर्गिक हक जता रहे हैं। झारखंड ही नहीं, पड़ोसी राज्यों में भी संथाल भाषी आदिवासी बड़ी संख्या में रहते हैं। संथाली में इस पहाड़ का नाम ‘मराँग बुरु’ है। अर्थात, बूढ़ा पहाड़। यह उनकी पुरातन आस्था का केंद्र है। वे कहते हैं, उनकी प्रार्थना की शुरुआत मराँग बुरु से ही होती है। आदिवासी परंपरा में यहाँ आषाढ़ी पूजा में मुर्गे की बलि दी जाती है। उन्हें लगता है कि पूरे पारसनाथ को इको-सेंसिटिव ज़ोन घोषित कर उन्हें यहाँ जाने से रोकने की कोशिश की जा रही है। झारखंड के अलावा दूसरे राज्यों बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और पड़ोसी देशों नेपाल और भूटान में रहने वाले आदिवासी इससे अपनी पहचान जोड़ते हैं। इसलिए वे इसकी स्थिति से कोई भी छेड़छाड़ नहीं होना देना चाहते हैं।

इस पहाड़ से आदिवासियों की आस्था जितनी जुड़ी है, उतनी ही जैन समाज की भी। यह समझने के लिए एक नजर जैन माइथोलॉजी पर भी डालते हैं।

जैन परंपरा में 24 तीर्थंकर हुए हैं। इन्हें जिन भी कहते हैं। ऐसे महापुरुष जो सर्वोच्च ज्ञान—कैवल्य पाकर पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो गए।

मान्यता है, तीर्थंकर हर कालचक्र में होते हैं। वर्तमान कालचक्र के 24 तीर्थंकरों में सबसे पहले भगवान आदिनाथ हुए। उनका नाम भगवान ऋषभदेव भी है। भगवान महावीर स्वामी 24वें और अंतिम हैं। इन दोनों और दो अन्य भगवान वासुपूज्य और भगवान नेमिनाथ को छोड़कर बाकी 20 तीर्थंकरों के कूट सम्मेद शिखर पर बने हैं, जहाँ unhone  अलग-अलग समय पर मोक्ष पाया।

यह जानना भी रोचक है कि जैन दर्शन में ब्रह्मांड अजर-अमर है। इसे किसी ने नहीं बनाया। यह शाश्वत है— हमेशा से था, हमेशा रहेगा।

वे अयोध्या और पार्श्वनाथ को भी अमर मानते हैं। जैन मान्यता है, सभी तीर्थंकर अयोध्या में जन्म लेते हैं और पार्श्वनाथ में मोक्ष प्राप्त करते हैं। हालाँकि, पाँच तीर्थंकरों का ही जन्म अयोध्या में हुआ और 20  ने पार्श्वनाथ में मोक्ष पाया। मुनि श्री प्रमाण सागर जी के अनुसार, एक विचित्र योग के कारण ऐसा हुआ। यह योग कारणों से परे हैं। इसे हुंडावसर्पिणी योग कहते हैं। हुंड यानी विचित्र। अवसर्पिणी वर्तमान कालचक्र का नाम है।

जैन मिथ के अनुसार संसार का कालचक्र दो बराबर भागों में बंटा होता है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी। पहले में उत्थान, लगातार प्रगति और खुशहाली होती है। दूसरे में पतन, लगातार दुख और बदहाली। अभी दूसरा कालचक्र चल रहा है।

पंडित ध्यानत्रैजी ने अपने काव्य ग्रंथ पूजा में लिखा है कि अगर कोई व्यक्ति एक बार भी सम्मेद शिखर की तीर्थयात्रा कर ले तो वह नरक या पशु योनि में जाने से बच जाता है।

इस तीर्थ स्थल पर पहुँचने के लिए झारखंड के पारसनाथ स्टेशन तक ट्रेन या सड़क से जा सकते हैं। इसके बाद गिरिडीह रोड पर पालगंज से यात्रा शुरू होती है। पारसनाथ पर्वत की तलहटी में मधुवन में पार्श्वनाथ मंदिर से होकर आम तौर पर पैदल यात्रा शुरू होती है। लगभग 27 किलोमीटर की परिक्रमा कर लोग सम्मेद शिखर पर पहुंचते हैं।

शिखरजी में वर्तमान मंदिर का दुबारा निर्माण सन 1768  में किया गया। लेकिन, उससे भी पहले सैकड़ों साल से यह अस्तित्व में है। भगवान पार्श्वनाथ की 12वीं सदी की जीवनी ‘पार्श्वनाथचरित’ में भी इसका उल्लेख है। कहते हैं कि गुजरात के वघेला राजवंश के एक प्रधानमंत्री ने 14वीं सदी में यहाँ भव्य मंदिर बनाया। बाद में बादशाह अकबर ने इस क्षेत्र का प्रबंधन जैन समाज को सौंपकर आसपास के इलाकों तक पशु वध रुकवा दिया था।

शिखरजी की एक विशेष बात 31 टोंक हैं। इनमें तीर्थंकरों के पदचिह्न संगमरमर पर बने हुए हैं। इन्हीं की पूजा होती है। जिस पर्वत पर भगवान पार्श्वनाथ ने मोक्ष प्राप्त किया, उसे सुवर्णभद्र कूट कहते हैं। यहाँ कच्चे चावल और मिठाइयाँ चढ़ाई जाती हैं।

जैन नीतिशास्त्र के अनुसार, इस शिखर का ध्यान करने से ही 49 योनियों से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। यही कारण है कि सैकड़ों साल से आम लोगों से लेकर मुनि और राजा तक यहाँ मोक्ष प्राप्त करने आते रहे हैं।

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पारसनाथ पर्वत पर लगभग 27 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर शिखरजी पर पहुँचा जाता है। (चित्रः इंटरनेट)

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