ऑपरेशन चटनी से ऑपरेशन विजय तक
यह हार पुर्तगालियों के लिए पहला सबक साबित हुई। उन्होंने गोवा, दमन और दीव की सुरक्षा और बढ़ा दी। तब पुर्तगालियों का अफ्रीका के मोजाम्बिक और अंगोला देशों पर भी राज था। अक्सर, बंदियों को वहीं की जेलों में भेजा जाता था। सुरक्षा बढ़ने के लिए अंगोला और मोजाम्बिक से पुर्तगालियों ने अपने और सैनिकों को बुला लिया। अब तक जवाहरलाल नेहरु समझ चुके थे कि पुर्तगाली आसानी से गोवा नहीं छोड़ने वाले
सन् 1946 में, अपनी ख़राब तबियत के चलते राम मनोहर लोहिया ने कुछ समय गोवा में बिताने का निश्चय किया। वे अपने दोस्त डॉ जुलियाओ मेनेज़ेस के यहाँ ठहरे हुए थे। वहाँ समय बिताने के दौरान मेनेज़ेस से हुई बातों में यह निकल कर आया कि उस समय गोवा पर शासित पुर्तगाली सरकार ने सामाजिक बैठकों पर प्रतिबन्ध लगा रखा था। इसके अलावा और भी ऐसी बातें लोहिया को मालूम चली जो कि एक नागरिक के अधिकारों के बिलकुल ख़िलाफ़ थीं। उन्होंने उस समय एक सभा करने की ठानी। वह जून का महीना था और गोवा में भयंकर बारिश हो रही थी। उसके बावजूद लगभग 200 लोगों के सामने लोहिया ने सभा की और उन लोगों को जागरूक किया। यह जब पुर्तगालियों को पता चला तो उन्होंने लोहिया को गिरफ़्तार कर मडगाँव की जेल में डाल दिया। जब महात्मा गाँधी ने इसका विरोध किया तो पुर्तगालियों ने लोहिया को छोड़ दिया और उन पर पाँच साल का प्रतिबन्ध लगा दिया।
उसके बाद लोहिया का तुरंत आना नहीं हो पाया। लेकिन, उन्होंने जो चिंगारी जलाई थी उसने अपना काम करना शुरू कर दिया था। गोवा में कुछ ऐसे लोग निकलकर आए जिन्होंने मिलकर संगठन बनाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे, वह संगठन बड़ा होता चला गया। उसका नाम गोमान्तक रखा गया। अफ़सोस की बात यह थी कि उस समय केवल राम मनोहर लोहिया ही ऐसे थे जो गोवा के बारे में सोच रहे थे और उन्हें महात्मा गांधी का साथ मिला हुआ था। लेकिन, शुरू से ही नेहरु, पटेल जैसे बड़े नेताओं का गोवा की आज़ादी में कोई विशेष रूचि नहीं थी और गांधी जी की मृत्यु के बाद उस ओर, और भी नीरसता बढ़ गयी।
सन् 1961 की पहली दिसंबर को, तीनों सेनाओं के अध्यक्षों के साथ मिलकर ‘ऑपरेशन चटनी’ शुरू किया। इसका उद्देश्य पुर्तगालियों की हर हरकत पर नज़र रखना था और एक-एक कर गोवा के द्वीपों को कब्ज़े में लेना था। नौसेना की तरफ़ से राजपूत और कृपाण को कारोबारी जहांजों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। बेतवा और बीज़ को निगरानी का काम सौंपा। आईएनएस त्रिशूल, मैसूर और दिल्ली समुद्री हमले के लिए तैयार थे। उधर, हवाई हमले की सारी ज़िम्मेदारी एयर वाइस मार्शल एरलिक पिंटो के हाथों में थी। अरब सागर के ऊपर से उड़ते हुए बमवर्षक फाइटर प्लेन गोवा के आसमान में मंडराने लगे। जब तक पुर्तगाली कुछ सोच पाते उन्होंने उनके अलग-अलग ठिकानों पर बम गिराने शुरू कर दिए। देखते ही देखते पुर्तगालियों के ठिकाने धूं-धूं कर जलने लगे। ज़मीन पर, दमन ने मराठा लाइट इन्फेंट्री और दीव में राजपूत और मद्रास रेजिमेंट ने मोर्चा संभल रखा था।
हालाँकि, स्थानीय संगठन इतना मजबूत हो चुका था कि उसने अपने ही दम पर अगस्त, 1954 में दादर और नगर हवेली पर कब्ज़ा कर लिया। वहाँ अगले कुछ साल स्थानीय पंचायत ने ही सरकार संभाली। यह हार पुर्तगालियों के लिए पहला सबक साबित हुई। उन्होंने गोवा, दमन और दीव की सुरक्षा और बढ़ा दी। तब पुर्तगालियों का अफ्रीका के मोजाम्बिक और अंगोला देशों पर भी राज था। अक्सर, बंदियों को वहीं की जेलों में भेजा जाता था। सुरक्षा बढ़ने के लिए अंगोला और मोजाम्बिक से पुर्तगालियों ने अपने और सैनिकों को बुला लिया। अब तक जवाहरलाल नेहरु समझ चुके थे कि पुर्तगाली आसानी से गोवा नहीं छोड़ने वाले। वे दरअसल सैनिक करवाई से बच रहे थे। वे चाहते थे कि बात कुटनीतिक तरीके से सुलझ जाए लेकिन, ऐसा हुआ नहीं।
वास्को डी गामा के भारत आने के 12 साल बाद, 1510 से गोवा में जमे पुर्तगाल आख़िरकार 451 सालों के बाद भारत को छोड़ा। राम मनोहर लोहिया के प्रयत्नों और बाद में स्थानीय स्वतंत्रता सेनानियों और फिर 1961 में भारतीय फौज के पराक्रम के बाद, ऑपरेशन विजय शुरू होने के मात्र 36 घंटों में पुर्तगालियों ने सरेंडर कर दिया। 18, दिसंबर 1961 को पुर्तगालियों ने सफ़ेद झंडा दिखा दिया और इस तरह उसी दिन 2 बजकर 25 मिनिट पर भारतीय तिरंगा गोवा की ज़मीन पर लहराया। भारत के 34 सैनिक शहीद हुए और 51 घायल। लेकिन, इस बीच कितने ही स्थानीय स्वतंत्रता सेनानी ने भी अपनी जान दी। लेकिन, इन सबका सुखद परिणाम यह रहा कि आज गोवा भारत का अभिन्न अंग बन चुका है।