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उस समय जहाँ एक आम हिन्दुस्तानी परिवार रोटी-कपड़ा-मकान के लिए जूझता था वहीं उनके पास बाल्यवस्था में ही एक बन्दूक थी, जिससे वे जंगली सूअर और हिरण का शिकार किया करते थे। उनके शौक यहीं तक सीमित नहीं थे। उन्होंने एक स्पोर्ट्स कार भी ख़रीदी जिसकी सीट का कवर चीते की खाल से बना हुआ था।
26 दिसंबर 1914 को जन्म
कुष्ठरोग इंसानी सभ्यता के लिए लम्बे समय तक शाप बना रहा है। 4000 सालों से यह बीमारी इंसानों के लिए मुसीबत का कारण बनती आई है। यरूशलम शहर के बाहरी इलाक़े में मिले एक मकबरे में खोजे गए एक पुरुष शव के अवशेषों से मिले डीएनए से साबित हुआ कि वह पहला व्यक्ति था जिसमें कुष्ठरोग के लक्षण देखे गए थे। हालाँकि, आज कुष्ठरोग के उपचार में कई संभावनाएँ खोज ली गई हैं। लेकिन, बीसवीं शताब्दी में, हिन्दुस्तान में जब कुष्ठरोग चरम पर था और उसे लेकर लोगों में तरह-तरह की भ्रांतियाँ फैली हुई थीं, ऐसी स्थिति में मुरलीधर देवीदास आमटे, जिन्हें लोग प्यार से ‘बाबा आमटे’ कहकर बुलाते थे, हिन्दुस्तान के लोगों के लिए मसीहा के रूप में जन्म लिया।
महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले के हिंगनघाट में 26 दिसंबर, 1914 को एक अमीर परिवार में जन्में बाबा आमटे का बचपन बहुत ही लाड-प्यार में बीता। पिता देवीदास आमटे ब्रिटिश भारत में लेखपाल के पद पर कार्यरत थे। इसके साथ ही वे गाँव के बड़े ज़मींदारों में गिने जाते थे। उनकी माँ लक्ष्मीबाई आमटे गृहिणी थीं। उनके पिता उन्हें ‘बाबा’ कहकर बुलाते थे। संपन्न परिवार से ताल्लुक रखने वाले बाबा आमटे के पास किसी चीज़ की कभी कोई कमी नहीं हुई। उस समय जहाँ एक आम हिन्दुस्तानी परिवार रोटी-कपड़ा-मकान के लिए जूझता था वहीं बाबा आमटे के पास बाल्यवस्था में ही एक बन्दूक थी, जिससे वे जंगली सूअर और हिरण का शिकार किया करते थे। उनके शौक यहीं तक सीमित नहीं थे। उन्होंने एक स्पोर्ट्स कार भी ख़रीदी जिसकी सीट का कवर चीते की खाल से बना हुआ था।
एक संपन्न परिवार से आने के बावजूद उनके मन में सामाजिक विषमता के प्रति सजगता का बीज भीतर कहीं मौजूद था जो एक घटना रूपी नमी का इंतज़ार कर रहा था। एक क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल से पढ़ने के बाद उन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए लॉ को चुना। नागपुर यूनिवर्सिटी से एल.एल.बी. करने के बाद उन्होंने वकालत का अभ्यास शुरू किया। उसके बाद उन्होंने वर्धा में ही रहकर वकालत करने का फ़ैसला किया जहाँ वे काफ़ी सफल रहे। सन् 1946 में उन्होंने साधना गुलशास्त्री से शादी कर ली। इस दौरान वे महात्मा गाँधी और विनोबा भावे जैसे महान व्यक्तियों से बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने उनके साथ भारत दौरा भी किया और साथ में भारत छोड़ो आन्दोलन में जो नेता जेल में बंद कर दिए गए उनके लिए एक मुहीम चलाई जिसमें उन्होंने अन्य वकीलों को संगठित करने का काम किया और उन्हें प्रेरित किया कि वे उन नेताओं के लिए केस लड़े।
जो बीज उनके मन में था, जिसे प्रस्फुटित होने के लिए नमी मात्र की ज़रूरत थी। वह घटना सन् 1949 में घटी, जब उन्होंने एक कुष्ठरोग से पीड़ित एक व्यक्ति को देखा। उस घटना ने उन्हें भीतर तक झकझोर कर रख दिया। उन्होंने आनंदवन नाम की एक संस्था की स्थापना की। जो पूरी तरह से उन रोगियों की मदद के लिए तत्पर रहती थी। उनके इस काम में उनकी पत्नी साधना गुलशास्त्री ने भी पूरा सहयोग किया। वे भी उन्हीं के साथ इस परोपकार में लग गई और इसी के साथ वे उन लोगों के लिए ‘ताई’ बन गई। उसके बाद उन्होंने अपना बचा जीवन कुष्ठरोगियों की सेवा में लगा दिया। उन्होंने अपने जीवन में दो कृतियाँ भी लिखीं, एक ‘ज्वाला आणि फूले’ और दूसरा ‘उज्जवल उद्यासाठी’। दोनों ही कृतियाँ काव्यसंग्रह हैं।
उन्होंने आज़ादी के बाद, दुबारा राष्ट्रिय एकता के लिए सन् 1985 भारत यात्रा शुरू की। जीवन के बहत्तर वें वर्ष में शुरू की उस यात्रा में उन्होंने कन्याकुमारी से कश्मीर तक, 3000 मील से ज़्यादा का सफ़र तय किया। अपने सम्पूर्ण जीवन को सेवा में लगा देने के लिए उन्हें उनके जीवन में कई प्रतिष्ठित सम्मान मिले। जिनमें भारत सरकार की ओर से सन् 1971 में ‘पद्मश्री’, सन् 1985 में ‘रेमन मैग्सेसे अवार्ड’, अगले ही साल सन् 1986 में भारत सरकार द्वारा देश का दुसरे सर्वोच्च सम्मान ‘पद्मभूषण’ से नवाज़ा गया। सन् 1988 में उन्हें मानवाधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1990 में ‘टेम्पलन अवार्ड’ और सन् 1999 में प्रतिष्ठित ‘गाँधी शांति पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
उनके सेवा भाव ने हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि पुरे विश्व में कुष्ठरोगियों के लिए दुनिया में एक जगह बनाई जिसके लिए वे हज़ारों सालों से संघर्षरत रहे। उन्हें न सिर्फ़ शारीरिक राहत दिलाई गई यहाँ तक की मानसिक रूप से भी संबल देने का प्रयत्न किया गया जो कि बेहद ज़रूरी था। बाबा आमटे और साधना गुलशास्त्री से दो संताने हुई, प्रकाश और विकास। उन्होंने भी अपना डाक्टरी जीवन, पिता के कदमों पर चलकर, परोपकार में लगा दिया। अपने साथ ढेर सारी दुआएँ लेकर बाबा आमटे 9 फ़रवरी, 2008 को 94 वर्ष की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गए।
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