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मालिक गुमान चंद पटवा ने बनाई करोड़ों की हवेलियाँ
मालिक गुमान चंद पटवा एक दिन चुपचाप अपनी हवेलियाँ अपने नौकरों के कंधों पर डाल किसी दुसरे शहर चले गए. उनका क्या हुआ नहीं पता. लेकिन, पटवाओं की हवेलियों पर नौकरों का राज हो गया. एक समय बाद उन्होंने ये हवेलियाँ किसी और को बेच दी.

मालिक गुमान चंद पटवा ने बनाई करोड़ों की हवेलियाँ, नौकरों ने बेच दी

एक समय जैसलमेर शहर विश्व प्रसिद्द सिल्क रूट पर एक अहम पड़ाव हुआ करता था. बड़े-बड़े व्यापार उस रास्ते से गुज़रते थे. तब जैसलमेर जरी के कपड़ों के व्यापारियों का गढ़ हुआ करता था. यह बात 19वी शताब्दी की है. उन व्यापारियों में एक गुमान चंद पटवा भी थे. उनके जरी के अलावा सोने-चाँदी का काम भी था जो कि कपड़ों से ही जुड़ा था. अब यह कितना सही है कितना नहीं लेकिन, लोगों में यह अफ़वाह थी कि गुमान चंद दीवारों के पीछे अफ़ीम का भी धंधा करते थे. बहरहाल, हक़ीकत यह थी कि अन्य व्यपारियों की तुलना में गुमान चंद शोहरत की सीढियाँ अपेक्षाकृत कहीं अधिक तेज़ी से चढ़े और देखते ही देखते वे जैसलमेर के सबसे धनवान लोगों में शुमार होने लगे. उनका कारोबार न सिर्फ़ भारत में बल्कि ईरान और चीन तक फैल गया था.

पैसा आता है तो उसे निकालने की भी ज़रूरत महसूस होती है. गुमान चंद ने अथाह धनराशी से एक हवेली बनवाने की सोची. उन्होंने किले से कुछ दूर एक जगह देखी और वहाँ हवेली बनवाने का निश्चय कर लिया. सन् 1805 में हवेली का काम शुरू हुआ. केवल हवेली को काग़ज़ पर उतारते-उतारते ही तीस साल गुज़र गए. तब गुमान चंद ने एक ही नहीं कुल पाँच हवेलियाँ बनवाने का इरादा बना लिया और पाँचों हवेलियों को पाँच बेटों में बाँट देने का निश्चय कर लिया. पाँचों हवेलियों को बनने में पूरे 60 साल लग गए. राजस्थानी स्थापत्य कला का नमूना वे हवेलियाँ पीली बलुआ पत्थरों से बनी. मेहराब, झरोखे, बारीक़ नक्काशी से बनी खिड़कियाँ जिनसे बाहर तो देखा जा सकता है लेकिन भीतर नहीं, बहु-मंज़िला इमारतें, बीच में हवा-पानी के लिए खाली जगह, फव्वारे, हवेली के अन्दर काँच की दीवारें, उन पर बने चित्र जो कुछ-न-कुछ कहानी कहते नज़र आते हैं. बड़ी-बड़ी पेंटिंग्स, जो देखने में एक बार आकर्षित करे लेकिन, साथ में धोखा भी दे. वे दरअसल, चोरों से बचने के लिए बनी तिजोरियां हैं जिन पर ग़ज़ब की चित्रकारी की हुई है, ताकि चोरों को मुर्ख बनाया जा सके. वे हवेलियाँ अन्दर से इतनी ठंडी कि जैसलमेर की तपती धूप और लू में भी अन्दर पंखा तक चलाने का मन न करे. फिर भी, मेहमानों के लिए मिट्टी के तेल से चलले वाले पंखे, अन्ग्रेओं के लिए सुंदर कुर्सियां, भारतीयों के लिए आलिशान कालीन – जैसे किसी राजा के यहाँ बैठे हों.

पटवाओं की पाँच हवेलियों में एक हवेली : चित्र साभार - TourMyIndia.com
लेकिन, नियति को कुछ और ही मंज़ूर था. समय बदल रहा था. समय के साथ-साथ नयी-नयी सम्भावनाएं पैदा हो रही थीं. सिल्क रूट की उपयोगिता घटने लगी. उसकी जगह नये-नये बंदरगाह उग आए जो अपेक्षाकृत कम समय व खर्चे में काम को अंजाम देने लगे और देखते ही देखते सिल्क रूट इतिहास बन गया. उसके साथ ही गुमान चंद पटवा का भी पतन शुरू हो गया और एक दिन वे चुपचाप अपनी हवेलियाँ अपने नौकरों के कंधों पर डाल किसी दुसरे शहर चले गए. उनका क्या हुआ नहीं पता. लेकिन, पटवाओं की हवेलियों पर नौकरों का राज हो गया. बाद में नौकरों ने भी हवेलियों को छोड़ दिया. उन्होंने जीवन लाल कोठारी नाम के एक व्यापारी को ये हवेलियाँ बेच डालीं. आज स्थानीय लोग इन हवेलियों को कोठारी की पटवाओं की हवेलियाँ कहते हैं.
पटवा हवेली के अन्दर का दृश्य : चित्र साभार - RajputanaCabs.com
खैर, आज उन पाँच हवेलियों में से केवल दो ही, पर्यटकों के लिए खुली है. बाक़ी तीन को मरम्मत की ज़रूरत है. लेकिन, जब ये हवेलियाँ बनी तब जैसलमेर में उस तरह की पहली हवेली थी और राजस्थान में दूसरी. उससे पहले बीकानेर और शेखावाटी की हवेलियाँ चर्चा का विषय होती थीं लेकिन, अपनी स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने ने पटवाओं की हवेलियों को एक मुख्य पर्यटक केंद्र बना दिया है.

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Shubham Ameta Author
उदयपुर में जन्म। जयपुर से कॉलेज और वहीं से रंगमंच की भी पेशेवर शुरुआत। लेखन में बढ़ती रुचि ने पहले व्यंग फिर कविता की ओर मोड़ा। अब तक कविताएँ, वृत्तांत, संस्मरण, कहानियाँ और बाल एवं नुक्कड़ नाटक लिखे हैं। लेकिन खोज अब भी जारी, सफ़र अब भी बाक़ी।

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