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अतीत के गलियारे में ले जाती आहड़ सभ्यता
आहड़ सभ्यता के बालाथल में लगभग 500 स्क्वायर मीटर में फैला एक किलेनुमा ढांचा मिला, जिसमें बड़ी मात्रा में राख और गाय का गोबर पाया गया. वह कुछ 4500 साल पुराना था. उसके बाद, अलग-अलग उत्खननों में पाँच कंकाल भी मिले, जिनमें चार क़रीब 2000-1800 ईसा पूर्व पुराने थे. यह इस सभ्यता के होने के शुरूआती साक्ष्य थे.
![आहड़ सभ्यता उत्खनन स्थल : चित्र साभार - इंडिया टुडे](https://s3-us-west-2.amazonaws.com/secure.notion-static.com/da883fef-e02c-44b0-80f3-6e7cbdc620c2/Untitled.png) आहड़ सभ्यता उत्खनन स्थल : चित्र साभार - इंडिया टुडे

आहड़ सभ्यता

50 के दशक के मध्य, वर्तमान उदयपुर में, शहर से लगभग 3 मील दूर राजस्थान के पुरातत्व विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष आर.सी. अग्रवाल के नेतृत्व में आहड़ नमक जगह पर एक अजीब, रहस्यमयी खोज की. उनका दावा था कि उस जगह प्राचीन सभ्यता के साक्ष्य मौजूद हैं. लेकिन, आर.सी.अग्रवाल के दावे को एक तरह से अनदेखा कर दिया गया. उसके कुछ साल बाद, उदयपुर से कुछ किलोमीटर दूर गिलुण्ड नमक जगह पर खुदाई शुरू हुई लेकिन, जल्दी ही वहाँ से ध्यान भटककर हड़प्पा की ओर चला गया.

सन् 1994 में, द डेक्कन कॉलेज, पुणे और राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर का ध्यान दुबारा आहड़ की ओर गया और उसी साल वल्लभनगर तहसील के बालाथल नमक गाँव में खुदाई शुरू की. उसके पाँच साल बाद सन् 1999 में डेक्कन कॉलेज ने यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेन्सिल्वेनिया के साथ मिलकर गिलुण्ड में उत्खनन का काम चालू किया. उसके अगले ही साल जयपुर-वृत्त के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने भीलवाड़ा के ओजियाणा में दिलचस्पी दिखाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते चौंका देने वाले नतीजे बाहर आने लगे.

आहड़ सभ्यता की खुदाई करने लोग : चित्र साभार - the falling spaces blog
बालाथल में लगभग 500 स्क्वायर मीटर में फैला एक किलेनुमा ढांचा मिला, जिसमें बड़ी मात्रा में राख और गाय का गोबर पाया गया. वह कुछ 4500 साल पुराना था. उसके बाद, अलग-अलग उत्खननों में पाँच कंकाल भी मिले, जिनमें चार क़रीब 2000-1800 ईसा पूर्व पुराने थे. तब ताम्रयुग चल रहा था. कार्बन डेटिंग – जिसमें किसी भी जैविक पदार्थ की उम्र पता लगे जाती है, से पता लगा कि दक्षिणी राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में 3500 -1800 ई.पू. के बीच एक बड़ी आबादी उस जगह रहा करती थी. वह सभ्यता अरावली के पूर्वी भाग में दो नदियों आहड़ और बनास के आसपास फली-फूली इसलिए, इसका नाम आहड़ या बनास घाटी सभ्यता रखा गया.
उत्खनन में मिला कंकाल : चित्र साभार - इंडिया टुडे
लगातार चल रही खुदाई और रोचक रहस्यों के खुलने की वजह से, पुरातत्व विभाग ने अपना काम जारी रखा और सन् 2000 तक कुल 90 ऐसी जगहें चुन ली, जहाँ आहड़ सभ्यता के साक्ष्य मिले. यह उदयपुर, राजसमन्द चित्तौड़, डूंगरपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, टोंक और अजमेर ज़िले का क़रीब 10,000 स्क्वायर किलोमीटर क्षेत्र घेरे हुई थी. शोध में निकल कर आया कि आहड़ सभ्यता, हड़प्पा से बिलकुल अलग, एक ग्रामीण सभ्यता थी लेकिन, दोनों - आहड़ और हड़प्पा का समय काल एक ही था और दोनों में कुछ-एक समानताएं मिली, जो इस ओर संकेत कर रही थीं कि दोनों के बीच व्यापारिक संबंध रहे होंगे! एक शोध में यह भी निकल कर आया कि आहड़ की ग्रामीण सभ्यता, हड़प्पा से भी पहले अस्तित्व में आ गई थी.
आहड़ म्यूज़ियम में रखे बर्तन : चित्र साभार - myudaipurcity.com
उस समय इस खोज के साथ जुड़ी यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन, अमेरिका की मानवविज्ञानी ग्वेन रॉबिन्स के प्रारंभिक विश्लेषण में सामने आया कि जो पहला कंकाल मिला वह एक आदमी का था जिसकी 50 की उम्र में ही मृत्यु हो गई थी. उसे जोड़ों की बीमारी थी. कुछ और हड्डियों के टुकड़े मिले, जिससे 35 साल के एक और इंसान की पुष्टि हुई. लेकिन, उसका लिंग पता नहीं चल सका. तीसरा और चौथा कंकाल औरतों के थे, जो 35 की उम्र तक ही जी पाई. चौथे कंकाल के साथ सिर के पास एक लोटा मिला जो संकेत करता है कि उस समय भी कुछ रीतियाँ रही होंगी. पाँचवा कंकाल, जो 35-40 की उम्र का रहा था, को बैठे अवस्था में दफ़नाया गया.
बैठी अवस्था मिला कंकाल : चित्र साभार - the falling spaces blog
किलेनुमा ढांचे में मिली राख और गोबर, उसके बाद मिर्मी, चित्तौडगढ़ में बड़ी संख्या में बैल जैसी आकृति और फिर ओजियाणा, भीलवाड़ा में गाय जैसी आकृतियों के मिलने से यह बहस शुरू हुई कि क्या आहड़ के लोग गाय और बैल को पूजते थे? उत्खनन में मिले मिट्टी के बर्तन से पता चला कि आहड़ निवासी मिट्टी के बर्तनों को बनाने में काफ़ी कुशल थे और हड़प्पा में मिले कुछ मिट्टी के बर्तन, बालाथल में बड़ी संख्या में मिले. जो बताता है ज़रूर हड़प्पा और आहड़ के बीच संबंध रहे थे और हड़प्पा निवासियों ने आहड़ निवासियों से मिट्टी के बर्तन बनाने की कला सीखी होगी. दोनों जगह एक से मिले बर्तनों पर काले और लाल रंगों का इस्तेमाल मिला, जो दुबारा इसी ओर संकेत करता है.
खुदाई में मिले मिट्टी के बर्तन : चित्र साभार - ancientasiajournal.com
अब ऐसा माना जा रहा है कि आहड़ निवासी, मेवाड़ क्षेत्र के पहले किसान थे. यदि साक्ष्यों को देखें तो इस बात में कोई संशय नहीं दिखता है. 1800 ईसा पूर्व में आहड़ सभ्यता लगभग ख़त्म हो गयी. यही वह दौर था जब हड़प्पा का भी पतन शुरू हो गया था. ज़रूर कोई प्राकृतिक आपदा या व्यापारिक संकट रहे होंगे, जिसकी वजह से दोनों सभ्यताओं का पतन लगभग समान समय-काल में शुरू हुआ. इस घटना के लम्बे समय बाद, मौर्य काल में दुबारा बालाथल में मानवीय बस्तियाँ बसना शुरू हुई. लेकिन, बीच के समय आहड़ का क्षेत्र वीरान ही रहा. ऐसे मत हैं कि आहड़ वासी कभी पूरी तरह से ग़ायब नहीं हुए. डेक्कन कॉलेज, पुणे के पूर्व प्राचार्य रह चुके वी.एन. मिश्रा के मुताबिक़ आज के मेवाड़ क्षेत्र में रह रहे आदिवासियों के पूर्वज आहड़वासी हो सकते हैं. क्योंकि, इन जातियों में स्त्रियों द्वारा पहनी जाने वाली ओढ़नी में इस्तेमाल होने वाले लाल और काले रंग के पेटर्न वैसे ही हैं जैसे आहड़ की खुदाई में मिट्टी के बर्तनों पर दिखे थे. इसके अलावा ये जातियाँ कुछ दशक पहले तक मरे हुए जानवरों का मांस भी खाती थी, जिसका अभ्यास आहड़ सभ्यता में भी देखा गया.
आहड़ सभ्यता की खुदाई करती स्थानीय औरतें : चित्र साभार - इंडिया टुडे
खैर, जो भी हो, लेकिन कई बार अतीत हमें हमारे ऐसे पक्ष से मुख़ातिब करवाता है जो इतना पीछे छूट चुका होता कि अतीत में डूबे बिना वहाँ तक पहुँच पाना लगभग असंभव ही दिखता है. आहड़ सभ्यता ऐसा ही एक अतीत रहा है - जिसमें अभी और डूबने की गुंजाईश बची है. अभी कई और राज़ खुलने बाक़ी हैं.

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Shubham Ameta Author
उदयपुर में जन्म। जयपुर से कॉलेज और वहीं से रंगमंच की भी पेशेवर शुरुआत। लेखन में बढ़ती रुचि ने पहले व्यंग फिर कविता की ओर मोड़ा। अब तक कविताएँ, वृत्तांत, संस्मरण, कहानियाँ और बाल एवं नुक्कड़ नाटक लिखे हैं। लेकिन खोज अब भी जारी, सफ़र अब भी बाक़ी।

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