एक मशहूर बांग्ला कथाकार हुए, बिभूति भूषण बंदोपाध्याय. वे पश्चिम बंगाल के नदिया ज़िले के मुरातीपुर गाँव में जन्में. प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में करने के बाद, उन्होंने उच्च शिक्षा और कॉलेज कलकत्ता से किया. लेखक बनने से पहले वे बतौर शिक्षक, प्रचारक के रूप में सक्रिय रहे. महज़ 56 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन, अपनी छोटी-सी ज़िन्दगी में उन्होंने सोलह उपन्यास और 200 के क़रीब लघुकथाएँ लिखीं. उनका जन्म मुरातीपुर, अपने मामा के यहाँ हुआ लेकिन, उन्होंने अपनी ज़िन्दगी घाटशिला के फूलडूंगरी गाँव में ही बिताई. फूलडूंगरी में एक पेड़ के नीचे उनका पहला उपन्यास ‘पाथेर पांचाली’ अस्तित्व में आया. पाथेर पांचाली, जिसका मतलब है ‘पथगीत’. उनका पहला ही उपन्यास बेहद चर्चित रहा. इतना कि सत्यजीत रे ने अपनी फ़िल्मी शुरुआत उसी उपन्यास की. जब बंदोपाध्याय अपराजितो लिख रहे थे तभी उनकी मृत्यु हो गई. अधूरे अपराजितो को उनके बेटे ने पूरा किया. बिभूति भूषण बंदोपाध्याय की पत्नी से सत्यजीत रे ने इजाज़त लेकर उन दोनों उपन्यासों पर फ़िल्म बनाई और उसके बाद अपुर संसार नाम से एक और फ़िल्म बनाई. तीनों ही फ़िल्में ‘द अपु ट्रायलोजी’ नाम से प्रसिद्द हुई. इस ट्रायलोजी की पहली फ़िल्म पाथेर पांचाली न सिर्फ़ बिभूति भषण का पहला उपन्यास था, वह सत्यजीत रे की पहली फ़िल्म भी थी. इससे पहले उन्होंने सिर्फ़ फ़िल्में देखी थीं. कैमरा सभालने वाले सुब्रत मित्रा ने उससे पहले कभी फ़िल्म कैमरा नहीं संभाला था. सत्यजीत रे ने जब पाथेर पांचाली की कहानी उनके दोस्त, इटालियन फिल्मकार वित्तोरियो डी सिका को बताई तो उन्होंने रे को उस पर फ़िल्म बनाने के लिए कह डाला. रे को बात जम गयी. लेकिन, न तो पैसा था न ही अनुभव. रे ख़ुद प्रोड्यूसर बन गए और फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने के बजाए, उसके कुछ नोट्स बनाए और सीन्स स्केच किए.
सत्यजित रे की फ़िल्म पाथेर पांचाली का एक क्षण : चित्र साभार - Satyajit Ray Org
कुछ महीनों के बाद ही पाथेर पांचाली की शूटिंग पैसों की कमी के कारण ठप पड़ गयी. बजट कम होने की वजह से फ़िल्म में काम कर रहे अदाकारों को भी कम पैसे मिलते थे. आलम यह था कि अपु का किरदार निभाने वाले सुबीर बेनर्जी सत्यजीत रे के पड़ोसी थे. बजट ने इतनी रुकावटें डालीं कि फ़िल्म को दो बार रोकना पड़ गया. सत्यजीत रे पहले ही काफ़ी समय और पैसा लगा चुके थे. उन्हें यह भी डर था कहीं कंटिन्यूटी की दिक्कत का सामना न करना पड़े. फ़िल्म बच्चों से भरी पड़ी थी. वे उस उम्र में पहुँच गए थे जब शारीरिक बदलाव एकदम से दिखने लगते हैं. उसके अलावा एक और महत्वपूर्ण किरदार काफ़ी उम्र में था और फ़िल्म आधी बाक़ी थी. रे ने अपनी बिमा पॉलिसी, ग्रामोफ़ोन यहाँ तक की अपनी पत्नी विजय के ज़ेवर तक बेच दिए. जब फ़िल्म दूसरी बार रुकी तब उनके सामने लगभग सारे रास्ते बंद हो चुके थे. तभी किसी की सलाह पर वे बंगाल तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.सी.रॉय मिले और उन्होंने सत्यजीत रे को सरकरी फण्ड से दो लाख रुपयों की मदद की. इस तरह पाथेर पांचाली दुनिया के सामने आई. इसके बाद जो भी हुआ वह इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो चुका है. लेकिन, एक पेड़ के नीचे लिखे उपन्यास का विश्व तक पहुँचने का सफ़र ख़ुद एक कहानी से कम नहीं है. पाथेर पांचाली फ़िल्म जितनी कमाल की है, उपन्यास भी उतना ही कमाल का है. भले उन्नीस नहीं, बीस ही होगा. यहाँ आपको उसके एक अंश के साथ छोड़ रहे हैं – मुमकिन है, यह अंश आपको आसानी से छोड़ने नहीं वाला -
सत्यजित रे फ़िल्म की शूटिंग के दौरान : चित्र साभार - समालोचन
फ़िल्म पाथेर पांचाली से एक दृश्य : चित्र साभार - इकनोमिक टाइम्स
जब रात काफ़ी हो गई तो वह कुछ लोगों की बातचीत सुनकर जग पड़ी. ऐसा मालूम पड़ा की सभी व्यस्त और परेशान हैं. वह कुछ देर जगती रही, फिर सो गयी. बांस की कोठी में हवा लगने के कारण सांय-सांय हो रही थी. सौर में बत्ती जल रही थी. आँगन में चाँदनी छिटक रही थी. वह थोड़ी देर बाद ठंडी हवा में सो गयी. फिर शोर-गुल सुनकर उसकी नींद टूट गयी. पिता परेशान होकर बोला : “चाची जी. कैसी तबियत है? क्या हुआ?” अन्दर से अजीब रुंधी हुई आवाज़ आ रही थी. वह माँ की आवाज़ थी. कुछ न समझकर डर के मारे सोचने लगी, “माँ को क्या हो गया? वह ऐसा क्यों कर रही है?” इसी स्थिति में वह लेटी और न जाने कब फिर उसकी आँख लग गयी. न जाने रात के किस पहर बिल्ली की म्याऊं-म्याऊं से उसकी नींद खुल गयी. उसे याद आया शाम के समय बिल्ली के बच्चों को उसने फूफी की कोठरी के आँगनवाले चूल्हे में छुपा दिया था. इतने छोटे थे कि आँखें भी नहीं खुली थीं. कहीं पड़ोस के बिल्ले ने आकर चट न कर डाला हो! वह तुरंत उठी और चूल्हे की ओर दौड़ पड़ी. बिल्ली के बच्चे तो निश्चिन्त हो सोए पड़े थे. वह लौटकर सो गयी. अगली सुबह, वह जागकर आँखें मल रही थी कि कुडूनी की दाई माँ बोली, “कल रात को तेरे एक भाई हुआ है...देखेगी नहीं?”
Shubham Ameta Author
उदयपुर में जन्म। जयपुर से कॉलेज और वहीं से रंगमंच की भी पेशेवर शुरुआत। लेखन में बढ़ती रुचि ने पहले व्यंग फिर कविता की ओर मोड़ा। अब तक कविताएँ, वृत्तांत, संस्मरण, कहानियाँ और बाल एवं नुक्कड़ नाटक लिखे हैं। लेकिन खोज अब भी जारी, सफ़र अब भी बाक़ी।
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