केएल सहगल को सेल्समैन से सिंगर बनाने वाले हरीश चंद्र बाली
हिंदी सिनेमा के पहले स्टार गायक कुंदन लाल सहगल 1930-31 तक लाहौर की एक टाइपराइटर कंपनी के सेल्समैन थे। काम के सिलसिले में वह कलकत्ता गए। एक पनवाड़ी की दुकान पर पान खरीदते हुए वह आदतन कुछ गुनगुना रहे थे। तभी एक पारखी व्यक्ति ने उन्हें सुना। वह उन्हें अपने घर ले गए, अगले ही दिन ऑडिशन हुआ और सहगल को सेल्समैन से सिंगर बनते देर नहीं लगी... उसी मुलाकात पर केंद्रित यह छोटा-सा किस्सा
1930 की शुरुआत का कलकत्ता। मेट्रो सिनेमा के बाहर एक पनवाड़ी की दुकान पर लोग पान खरीद रहे हैं। एक नौजवान कुछ गुनगुना रहा है। उसके गुनगुनाने में कुछ नयापन है। यह देखकर पान लेने आया एक शख्स उस अजनबी को गौर से देखते हैं। तुम गाते भी हो, यह कहकर उससे तुरंत बात करने लगते हैं। नौजवान अपना नाम कुंदन लाल बताता है। लाहौर से आया है। रेमिंग्टन टाइपराइटर बेचने वाली कंपनी में सेल्समैन है। टाइपराइटर बेचने ही कोलकाता आया है।
पान की गिलौरियां मुंह में दबाए वे दोनों साथ-साथ जाते हैं। अगली सुबह उस गवैये को न्यू थियेटर्स के संगीतकार आरसी बोराल से मिलाया जाता है। बोराल, जिन्हें फादर ऑफ इंडियन फिल्म म्यूजिक कहते हैं, उसे गाते सुनते हैं। थोड़ी ही देर में उसे 200 रुपए महीने की तनख्वाह पर पांच साल के लिए गाने की नौकरी दे दी जाती है। टाइपराइटर बेचने वाले बंदे को बाकायदा गायक और अभिनेता बनते देर नहीं लगती है। 1932 में वह 'मोहब्बत के आँसू' में पहली बार अभिनेता-गायक के रूप में सामने आए। शुरुआती फ़िल्मों में अपना नाम रखा सहगल कश्मीरी। 1933 में अपनी चौथी फ़िल्म 'यहूदी की लड़की' में वह अपने असली नाम केएल सहगल अपना लेते हैं।
यह तो रहा सहगल की खोज का किस्सा।
मगर, बात आज उस पारखी बंदे की हो रही है, जिसने पान चबाते हुए भविष्य के स्टार गायक सहगल को खोजा था। वह थे - हरीश चंद्र बाली (Pt. Harish Chander Bali)- न्यू थियेटर्स में आरसी बोराल के साथी संगीतकार। पनवाड़ी की दुकान पर ही यह बात भी हो चुकी थी कि उन्हीं की तरह सहगल भी जालंधर से हैं। वह सहगल को अपने घर ले जाते हैं।
दरअसल, वहीं अगली सुबह अचानक बाली से मिलने बोराल आते हैं तो वह भी सहगल को सुनते हैं। फिर उसी दिन स्टूडियो में उनका बाकायदा ऑडिशन करवाते हैं। इसके बाद ही बोराल ने बाली को ही यह जिम्मेदारी सौंपी कि वह सहगल को रियाज़ करवाएंगे। दोनों हम उम्र थे। सहगल का जन्म 1904 का था तो बाली का 1906 का।
संगीत के शहर जालंधर में ही प. हरीश चंद्र बाली की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा हुई। वह वाल्ड सिटी के पुरियाँ मोहल्ले में रहते थे। उनके पिता पं. अर्जुनदास बाली भी बड़े गायक थे। यहीं हर साल हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन में जाते-जाते वह शास्त्रीय संगीत को समर्पित हो गए। उन्हें संगीत गुरु के रूप में पंडित तोलोराम ज्योति मिले थे, जो स्वयं पं. हरिवल्लभ के उत्तराधिकारी थे।
वह बाद में तलवंडी घराने के उस्ताद मौला बख्श के शागिर्द बने तो पं. भास्कर राव बुआ बाखले और पं. दिलीप चंद्र बेदी से भी संगीत की बारीकियां सीखने गए। इसके बाद वह बंबई चले गए। शुरुआत अभिनय से की। किंतु जल्द ही संगीत निर्देशक बन गए। तीस और चालीस के दशक में 'अपना घर' से लेकर निराला हिंदुस्तान' और
जंगल क्वीन' से लेकर `महात्मा विदुर' तक कई मशहूर फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया। संगीतकार नौशाद ने भी उनकी शागिर्दी की थी।
इतनी ख्याति मिलने के बावजूद हरीशचंद्र बाली 1950 में अपने बचपन के शहर जालंधर लौट आए जहाँ तीन साल पहले के.एल. सहगल ने अंतिम साँस ली थी। तब बाली सिर्फ 44 साल के थे और आजादी के बाद हिंदी सिनेमा में गीत-संगीत के लिए नए अवसर बढ़ चुके थे।
यहां उन्होंने अपने पुरियां मोहल्ले में संगीत विहार नाम से संगीत विद्यालय खोला। संगीत की पाठ्य पुस्तकें भी लिखीं। पंजाबी में 'संगीत प्रकाश' लिखा, जिसे पंजाब स्टेट यूनिवर्सिटी टैक्स्टबुक्स बोर्ड, चंडीगढ़ ने प्रकाशित किया था। संगीत विज्ञान चार खंडों में है।
जालंधर में 26 साल उन्होंने संगीत की सेवा की। गले के कैंसर के कारण 24 जून 1976 को अंतिम सांस लेने तक वह संगीत की सेवा करते रहे।