जानकी थेवर: जो 18 की उम्र में अपने ज़ेवर बेच कर आज़ाद हिन्द फ़ौज से जुड़ गयी
जानकी थेवर ने अपने पिता के विरुद्ध जाकर, मात्र 18 की उम्र में आज़ाद हिन्द फ़ौज से जुड़ गयी. एक ऊँचे परिवार में जन्मी जानकी के लिए सेना की ज़िन्दगी आसान नहीं थी. लेकिन, अपने जूनून के बल पर वे न सिर्फ़ झाँसी रेजिमेंट में चुनी गयी बल्कि सेकंड-इन-कमांड का पद भी हासिल किया. यह तब की बात है जब महिलाओं का घर से बाहर निकलना तक क्रांति समझा जाता था.
‘भूमिका’ में जगह नहीं बना पाने का यह मतलब तो नहीं कि आपकी कोई भूमिका ही नहीं? आज़ादी का संघर्ष ऐसी ही एक बहस को जन्म देता है. भारत को आज़ाद करवाने में कितने ही लोगों के हाथ रहे. छोटे से छोटा योगदान भी घर की एक ईंट जितना उपयोगी रहा. 25 फ़रवरी 1925 को कुअलालम्पुर, मलेशिया के एक अच्छे-खासे तमिल परिवार में जन्मी जानकी थेवर की ज़िन्दगी के शुरूआती 16 साल किसी आम भारतीय लड़की की तरह ही बीते. 1943 में सुभाष चन्द्र बोस सिंगापुर में 60,000 लोगों को संबोधित करते हुए भारत की आज़ादी के लिए चंदा और स्वयं सेवक की मांग कर रहे थे. जानकी तब 18 साल की थीं. जब जानकी ने नेताजी का भाषण सुना तो सबसे पहले उन्होंने अपने ज़ेवर दान में दे दिए.
इतनी कम उम्र में देश के प्रति जन्में जूनून ने एक-बारगी सभी को हैरत में डाल दिया. जानकी के पिता अंत तक जानकी के निर्णय के विरुद्ध खड़े रहे. लेकिन, अपना मन बना चुकी जानकी किसी भी हालत में आज़ाद हिन्द फ़ौज से जुड़ना चाहती थी. आख़िरकार, एक पिता को अपनी बेटी की ज़िद के आगे झुकना पड़ा. एक ऊँचे परिवार में जन्मी, पली-बढ़ी जानकी को शुरुआत में काफ़ी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. सेना का जीवन कठोर होता था और जानकी को ऐसे जीवन की आदत नहीं थी. अपने पहले ही दिन, जानकी अपने सामने परोसे गए खाने को देखकर रो पड़ी. इंसान बदलाव का भूखा होता है लेकिन, उसे बदलाव को पचाने में समय लगता है. धीरे-धीरे जानकी अपने आसपास के माहौल में घुलने-मिलने लगी और सेना के कड़े अनुशासन में ख़ुद को ढालने लगी. उनका आत्मविश्वास तब और बढ़ा जब उन्होंने ऑफिसर की परीक्षा में पहला स्थान पाया. इसके साथ ही उनका ओहदा भी बढ़ गया और जल्दी ही वे अपनी पलटन में सेकंड-इन-कमांड के पद पर पहुँच गयी.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, जानकी थेवर एक कार्यकर्त्ता ने रूप में उभरी. वे मलेशिया में इंडियन नेशनल मेडिकल मिशन से जुड़ीं. इन सबके अलावा बाद के वर्षों में वे राजनीति में भी सक्रिय रही. न्युमोनियाँ से पीड़ित जानकी ने अपनी आख़िरी साँस 9 मई 2014 में 91 साल की उम्र में ली.
1943 के अंत में, जानकी थेवर को आज़ाद हिन्द फ़ौज के झाँसी की रानी पलटन के सिंगापुर के हेड क्वार्टर में तैनाती मिल गयी. जो कि सिंगापुर के वाटरलू स्ट्रीट पर था. वे लक्ष्मी स्वामीनाथन की देखरेख में फ़ौज उन कुल 500 स्त्रियों में से एक थीं. दिनचर्या दिनों दिन और भी मुश्किल होती जा रही थी. वह बिलकुल उसके विपरीत थी जैसा कि अमूमन भारतीय लड़कियों या स्त्रियों को उनके मध्यमवर्गीय या उच्चवर्गीय परिवार में मिलती थी.
बकौल जानकी थेवर, “सिर्फ़ झोंपड़ियाँ थीं. कोई बिस्तर नहीं... कुछ नहीं. हमें सुबह जल्दी उठाना पड़ता था. जैसे ही घंटा बजता था, हमें निकलना पड़ता था. और फिर हम देखते थे कि हज़ारों की तादाद में लड़कियाँ कैंप के बाथरूम की ओर दौड़ रही होती थीं. सुबह की भयंकर ठण्ड में नहाओ...फिर बाहर जाकर फिज़िकल ट्रेनिंग लो. आधे घंटे तक यही सब. उसके बाद हम आते... नाश्ता करते और फिर पूरे दिन हमारी आर्मी की ट्रेनिंग होती.” उन्होंने कई वर्षों बाद रंगून से बैंकांक तक आज़ाद हिन्द फ़ौज की मैराथन यात्रा के बारे में लिखा, “23 दिनों दुश्मनों के जहाजों से बचते हुए तक घने, काले, अछूते जंगलों से होकर, अशांत नदियों-धाराओं को पानी-बारिश से भीगे कपड़ों और छालों भरे पैरों से पार करना भयानक और रोमांच भरा था.”