जानकी देवी बजाज: जिन्होंने आराम का जीवन त्याग, ख़ुद को देश सेवा में लगा दिया.
एक अमीर परिवार में जन्मी और देश के सबसे बड़े उद्यमी परिवार में ब्याही जानकी देवी के सामने आराम की ज़िंदगी जीने का चुनाव खुला पड़ा था लेकिन, उन्होंने अपने पति जमना लाल बजाज के नक्श-ए-क़दम पर चलने का निश्चय किया और देश को आज़ाद करवाने में अपनी अहम भूमिका निभाई.
आठ साल की उम्र में जानकी देवी का विवाह, भारत के प्रतिष्ठित बजाज घराने में कर दिया गया. 7 जनवरी, 1893 में जन्मी एक वैष्णव-मारवाड़ी परिवार में जन्मी जानकी देवी के पास किसी चीज़ की कमी नहीं थी. एक बेहद संपन्न घर में जन्मी जानकी देवी की शादी उससे भी अधिक संपन्न परिवार में हुई. ग़ुलामी की बेड़ियों में जकड़े भारत में मानव के स्वावलंबन होने पर सबसे अधिक ज़ोर दिया जाता था. वही गुण जानकी देवी में भी देखने को मिलने लगा. 20वीं सदी की शुरुआत के कुछ सालों के बाद से ही गांधी और उनके विचार, भारतीयों पर सर-चढ़कर बोलने लगे थे. गांधीवाद, एक विचार से, विचारधारा में बदल रहा था. अपने पति जमनालाल बजाज, जो एक प्रतिष्ठित व्यापारी के साथ-साथ, गांधी के क़रीबी भी माने जाते थे, के कारण जानकी देवी पर भी गांधीवाद का सीधा असर देखने को मिला.
वे बड़ी हो रही थीं - लेकिन, जीवन को देखने-समझने का नज़रिया, उनके विचार, उनकी उम्र से दुगुनी रफ़्तार से बढ़ रहे थे. एक बड़े व्यापारी घराने की बहु होने के बावजूद उनमें त्याग की भावना पैदा होने लगी. सादा और सरल जीवन उन्हें आकर्षित करने लगा. वह कुछ बचपन से रहा होगा, कुछ अपने पति जमनालाल बजाज और महात्मा गांधी से प्रेरित होकर उपजा. जब वे 24 साल की थीं तो उनके पास उनके पति जमनालाल बजाज का एक पत्र आया जिसमें महात्मा गांधी के भाषण का ज़िक्र था जो उन्हीं दिनों जनमानस को संबोंधित किया था. उस पूरे पत्र में, भाषण के उससे हिस्से का भी ज़िक्र था, जिसमें ‘सोने’ को ईर्ष्या और खोने के डर का जन्मबिंदु माना है. इस बात ने जानकी देवी के मन पर इतना असर किया कि उन्होंने तुरंत ही आभूषणों का त्याग कर दिया और यह उपवास जीवन-भर चला. उसके बाद उन्होंने ता-उम्र किसी आभूषण को हाथ नहीं लगाया.
उस समय, आज से भी कहीं ज़्यादा, ऊँचे घरों की स्त्रियों को पर्दा रखना ज़रूरी होता था. जमनालाल बजाज ने उस परंपरा को जानकी देवी पर नहीं थोपा. जानकी देवी के लिए यह एक ज़बरदस्त घटना थी. उन्होंने समाज में बिना किसी पर्दे के आना-जाना शुरू किया. इस घटना से उन्हें एक क़िस्म की आज़ादी का अनुभव होने लगा. जिसे बाद में उन्होंने दूसरी स्त्रियों के साथ भी साझा किया. एक मुहीम की तरह शुरू हुई इस क्रांति ने हज़ारों स्त्रियों को प्रोत्साहित किया. वे स्त्रियाँ - जो उससे पहले तक, घर की चारदीवारी में ही बंद होकर रहा करती थी. इस क्रांति का एक असर यह भी हुआ कि उन्होंने न सिर्फ़ अपनी आवाज़ बुलंद की, साथ ही उनके बढे आत्मविश्वास का फ़ायदा आज़ादी के आन्दोलनों को भी हुआ. वे यहीं नहीं रुकी. उन्होंने समाज के सबसे निचले तबके, हरिजनों के लिए भी आवाज़ उठाई. 1928 के जुलाई महीने की 17 तारीख़ को वे, जमनालाल बजाज और हरिजनों के साथ महाराष्ट्र के वर्धा ज़िले के लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुँची. यह पहला मौका था जब उस मंदिर के कपाट हरिजनों के लिए खुले.
ऐसे देश में जहाँ स्त्री को देवी माना जाता है लेकिन, वही स्त्री जीवन-भर अपने सम्मान के लिए जूझती रहती है – जानकी देवी ने न सिर्फ़ स्त्रियों को जागरूक किया, एक पुरुष की सोच से भी आगे जाकर उन्होंने छूआछूत, पर्दा-प्रथा, स्वदेशी जागरूकता, भूदान, कूपदान और गौसेवा जैसे आंदोलनों से जुड़ी रही. उनकी सजगता, सक्रियता और ज़िंदादिली से विनोबा भावे इतने मुतअस्सिर हुए कि उन्होंने जानकी देवी को बड़ी बहन का दर्जा दे दिया. भारत सरकार ने भी उनके देश-सेवा, समाज-सेवा का सम्मान करते हुए, 1956 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया. 21 मई, 1976 में 86 की उम्र में जानकी देवी बजाज ने देह त्याग दी. भारतीय व्यापारी संघ की महिला शाखा ने ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों में लगे छोटे उद्यमियों के लिए 1992-93 से जानकी देवी पुरस्कार शुरू किया, जो आज तक अनवरत रूप से जारी है.