‘द ग्रेट गामा’ पहलवान जो अपनी ज़िन्दगी में एक भी कुश्ती नहीं हारा
कुश्ती भारत में आज से नहीं है. प्राचीन भारत का मल्ल-युद्ध जिसमें भीम को महारत हासिल थी, समय के साथ बदलता हुआ आज कुश्ती, दंगल और पहलवानी जैसे नामों से जाना जाता है. गामा पहलवान ऐसे ही दंगालबाज़ थे जिनसे विश्व के पहलवान खौफ़ खाते थे. यहाँ तक कि ब्रूस ली ख़ुद गामा पहलवान से अभ्यास की कुछ तकनीक सीख कर गए. यह उसी महान पहलवान ‘द ग्रेट गामा’ की कहानी है.
10 सितंबर 1910 के दिन प्रतियोगिता ‘जॉन बुल बेल्ट’ का फाइनल होना था. गामा के सामने चुनौती थी विश्व चैंपियन स्टेनिस्ल्स जिबेस्को की. धनराशि थी, 250 यूरो. 3 घंटे चले उस मुकाबले का कोई नतीजा नहीं निकला. निर्णय लिया गया कि अगले दिन फिर से कुश्ती होगी. लेकिन, अगले दिन जिबेस्को आए ही नहीं. जब उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा, "यह आदमी मेरे बस का नहीं है."
उस समय हिंदुस्तान में गुजरांवाला के रहीम बख्श सुल्तानीवाला की तूती बोलती थी. 7 फ़ीट के लंबे-चौड़े रहीम बख्श के सामने किसी पहलवान के जाने की हिम्मत नहीं होती थी. लेकिन, 1895 में 17 की उम्र में गामा ने अपने से दुगुनी से भी ज़्यादा उम्र के पहलवान, रहीम बख्श सुल्तानीवाला को चुनौती दे दी. रहीम बख्श ने चुनौती स्वीकार ली. ऐसा कहते हैं, जिस दिन कुश्ती होनी थी उस दिन लाहौर की गलियाँ सूनसान हो गई थीं. पूरा लाहौर उस ऐतिहासिक कुश्ती को देखने स्टेडियम जा पहुंचा था. रहीम बख्श सुल्तानीवाला के सामने 5 फ़ीट 8 इंच के गामा किसी बच्चे के समान लग रहे थे. घेरे के चारों ओर लग रही बोलियों से साफ़ झलक रहा था कि सुल्तानीवाला इस कुश्ती को जीतने में ज़्यादा वक्त नहीं लगाएंगे. लेकिन, नतीजा कुछ और ही निकला. 3 घंटे चली इस कुश्ती में कोई नहीं जीता. मुकाबला ड्रा पर ख़त्म हुआ. इसके साथ ही गामा हिंदुस्तान भर में प्रसिद्ध हो गए.
22 मई 1878 के दिन अमृतसर के जब्बोवाल गाँव में कश्मीरी पहलवान मोहम्मद अजीज़ बख्श के घर जन्में ग़ुलाम मोहम्मद बख्श ने अपने वालिद साहब को 6 की उम्र में खो दिया. उसके बाद ग़ुलाम मोहम्मद की परवरिश चाचा के हाथों हुई और पहलवानी नाना की देखरेख में. 1888, में जोधपुर में होने वाली एक प्रतियोगिता में ग़ुलाम मोहम्मद शीर्ष के 15 पहलवानों में शामिल हो सकने में कामयाब रहे. उस दिन जोधपुर के महाराजा भी वह मैच देख रहे थे. वे 10 साल के ग़ुलाम मोहम्मद के हुनर से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ग़ुलाम मोहम्मद के नाम के आगे विजेता की मुहर लगा दी. वह दिन ग़ुलाम मोहम्मद की पहलवानी के लिए ख़ूबसूरत मोड़ साबित हुआ.
दस साल की उम्र में मिले आत्मविश्वास के बाद ग़ुलाम मोहम्मद ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उसके बाद दतिया के महाराज ने पहलवान के प्रशिक्षण का जिम्मा उठा लिया. वे ग़ुलाम मोहम्मद से गामा पहलवान के रूप में प्रसिद्ध होने लगे. गामा प्रशिक्षण के दौरान एक दिन में 5000 उठक-बैठक और 3000 दंड-बैठक लगाते थे. ऐसा कहते हैं उनके खाने के चर्चे दूर-दूर तक मशहूर थे. वे छह मुर्गियां, दस लीटर दूध, आधा किलो घी और बादाम खा जाया करते थे.
1947 के विभाजन का दुःख गामा ने भी सहा. जब हिन्दू-मुसलमान के झगड़े हो रहे थे तब वे अपने इलाके में ढाल की तरह खड़े हो गए थे. उन्होंने कहा कि मेरे रहते किसी हिंदू को आंच तक नहीं आएगी. 1947 के बाद पाकिस्तान पहुंचे गामा विभाजन के दर्द से कभी नहीं निकल पाए. एक बूढ़े शेर की जंगल में जैसी हालत होती है गामा की स्थिति भी कुछ वैसी ही रही. अपनी पुरानी बीमारी से जूझ रहे गामा के पास इलाज के पैसे भी नहीं थे. तब जी.डी. बिरला और कुछ एक प्रशंसकों ने 2000 रुपए की मदद और फिर 300 रुपया महीना की पेंशन की सहायता शुरू की. गैर-सरकारी मदद मिलने से पाकिस्तान सरकार जगी और उसने गामा पहलवान के इलाज का जिम्मा उठाया. लेकिन, अफ़सोस अस्थमा की पुरानी बीमारी और फिर दिल की बीमारी के चलते 23 मई 1960 को द ग्रेट गामा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया.
1910 तक आते-आते गामा ने रहीम बख्श सुल्तानीवाला को छोड़ हिंदुस्तान के सभी छोटे-बड़े पहलवानों को धूल चटा दी थी. वे अब विदेश की ओर देख रहे थे. उन दिनों इंग्लैंड में एक कुश्ती का आयोजन हो रहा था. गामा अपने भाई इमाम बख्श के साथ वहां पहुंचे. लेकिन, अपने कद के कारण गामा को कुश्ती प्रतियोगिता में दाखिला नहीं मिल सका. इससे आहत होकर उन्होंने वहीं, आए हुए उन विदेशी पहलवानों को ललकार दिया. उन्होंने कहा - किसी वर्ग के 3 पहलवानों को 30 मिनिट में हरा सकता हूं, कोई है तो सामने आए. उनकी यह चुनौती अगले दिन के अखबारों का हिस्सा बन गई. उस प्रतियोगिता में हिस्सा लेने आए अमेरिकी पहलवान बेंजामिन रोलर ने गामा की चुनौती स्वीकार की. गामा ने पहले राउंड में 1 मिनिट 40 सेकंड में रोलर को हरा दिया और अगले राउंड में कुल 9 मिनिट 10 सेकंड में रिंग से बाहर का रास्ता दिखा दिया. उसके बाद गामा ने एक-एक कर 12 अन्य पहलवानों को हराया. उन्हें प्रतियोगिता में प्रवेश मिल चुका था.
इसके बाद गामा ने एक के बाद एक कई विदेशी पहलवानों को हराया. कई अन्य शैलियों के लड़ाकों को चुनौती दी. जिनमें से कईयों ने उसे स्वीकार तक नहीं किया. वे दुबारा भारत आए और देशी पहलवानों से लड़े और जीते. जब वे इंग्लैंड से हिंदुस्तान लौटे तो एक बार फिर उनका मुकाबला अपने सबसे पुराने और मजबूत प्रतिद्वंदी रहीम बख्श सुल्तानीवाला से हुआ. इलाहबाद में हुआ यह मुकाबला काफ़ी देर चला. लेकिन, इस बार नतीजा निकला. गामा, रहीम बख्श को हरा चुके थे. इस जीत के साथ ही उनको रुस्तम-ऐ-हिंद से नवाजा़ गया. 1922 में जब प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आए तो उन्होंने गामा को तोहफ़े में चांदी का गदा दिया. 1928 में जिबेस्को और गामा एक बार फिर पटियाला में आमने-सामने आए. एक मिनिट से भी कम चले इस मुकाबले में गामा विजयी रहे और उन्हें विश्व चैंपियन का खिताब मिल गया. जिबेस्को ने गामा को 'टाइगर' कहकर संबोधित किया. अपने पहलवानी के सफ़र में गामा कभी नहीं हारे. कुछ एक मुकाबलों में ज़रूर कोई नतीजा नहीं निकला हो लेकिन, हार उनसे कौसों दूर रही.