'नमस्कार, मैं रवीश कुमार' वह पत्रकार जिसने कैक्टस होना चुना बजाए जलकुम्भी के!
वह साल 1996 था. भारतीय मीडिया कई स्तर पर खुल रहा था और भारतीय समाज के सामने केवल दूरदर्शन ही एकमात्र चुनाव नहीं बचा था. चुनाव के विकल्प प्रतियोगिता और फिर प्रतिद्वंदी के जन्म का भी कारण बनते हैं. वह भारतीय मीडिया के खुले बाज़ार की ओर बढ़ने के एकदम शुरुआती दिन थे.
“ यह समय नागरिक होने के इम्तिहान का है. नागरिकता को फिर से समझने का है और उसके लिए लड़ने का है. यह जानते हुए कि इस समय में नागरिकता पर चौतरफा हमला हो रहे हैं और सत्ता की निगरानी बढ़ती जा रही है, एक व्यक्ति और एक समूह के तौर पर जो इस हमले से ख़ुद को बचा लेगा और इस लड़ाई में मांज लेगा, वही नागरिक भविष्य के बेहतर समाज और सरकार की नई बुनियाद रखेगा. दुनिया ऐसे नागरिकों की ज़िद से भरी हुई है. नफ़रत के माहौल और सूचनाओं के सूखे में कोई है, जो इस रेगिस्तान में कैक्टस के फूल की तरह खिला हुआ है. रेत में खड़ा पेड़ कभी यह नहीं सोचता कि उसके यहाँ होने का क्या मतलब है, वह दूसरों के लिए खड़ा होता है, ताकि पता चले कि रेत में भी हरियाली होती है. जहाँ कहीं भी लोकतंत्र हरे-भरे मैदान से रेगिस्तान में सबवर्ट किया जा रहा है, वहां आज नागरिक होने और सूचना पर उसके अधिकारी होने की लड़ाई थोड़ी मुश्किल ज़रूर हो गई है. मगर असंभव नहीं है. “
इस छोटे से टुकड़े का विषय और भाषा को देखकर अब तक कुछ लोगों के ज़ेहन में धुंधला-सा चित्र उभरने लग गया होगा. ताज्जुब की बात नहीं है, जिस व्यक्ति का ज़िक्र अगली पंक्ति में होने वाला है वह बेतरह मशहूर है न सिर्फ़ अपने प्रशंसकों के बीच बल्कि उन्हें ना-पसंद करने वालों के बीच भी.
1974 की दिसम्बर की सर्दियों की 5 तारीख़ को बिहार के मोतिहारी ज़िले के जितवारपुर गाँव में रवीश कुमार पाण्डेय का जन्म हुआ. वे 46 बरस पूरा करने जा रहे हैं. ऊपर जिस टुकड़े का ज़िक्र किया है वह उन्होंने साल 2019 में मिले रेमन मैग्सेसे पुरस्कार समारोह में कही थी. जिसमें नागरिक, नागरिकता और सत्ता के आपसी रिश्ते की आज की दशा दीख रही है जहाँ बोलने ( सच बोलने ) वाला रेगिस्तान में केक्टस के सामन है. उस पर लगे काँटे भले ही दीखने भर से चुभते हों लेकिन बंजर हो चुकी ज़मीन पर जल की आस भी वही पूरा करता दिखाई देता है. वहाँ उम्मीद दीखती है.
अपने शो 'प्राइम टाइम' से घर-घर पहुँचने वाले रवीश को पसंद करने वालों की तादाद बेहद लम्बी है लेकिन ना-पसंद करने वाले भी बहुत है. इस पर उन्हें पसंद करने वाले लोगों का कहना है - यह इसलिए है क्योंकि उनके अनुसार वे सच दीखाते हैं. लेकिन वहीं, उन्हें ना-पसंद करने वालों के अपने तर्क हैं.
बहरहाल, यह मानने से नहीं बचना चाहिए कि वे आज की तारीख़ में उन गिने-चुने पत्रकारों में आते हैं जो ख़ूब पढ़ते-लिखते हैं. अपनी शुरूआती स्कूली शिक्षा पटना शहर के कान्वेंट लोयोला हाई स्कूल से पूरी करने के बाद उन्होंने दिल्ली की ओर रुख़ किया. जहाँ उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी के देशबंधु कॉलेज से स्नातक किया। पटना से दिल्ली तक का सफ़र और फिर राजधानी की आबोहवा रवीश को देश के प्रतिष्ठित भारतीय जनसंचार संस्थान ले गयी जहाँ उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को क़रीब से समझा।
पत्रकारिता के क्षेत्र में रवीश की शुरुआत बतौर रिपोर्टर एनडीटीवी से हुई. वह साल 1996 था. भारतीय मीडिया कई स्तर पर खुल रहा था और भारतीय समाज के सामने केवल दूरदर्शन ही एकमात्र चुनाव नहीं बचा था. चुनाव के विकल्प प्रतियोगिता और फिर प्रतिद्वंदी के जन्म का भी कारण बनते हैं. वह भारतीय मीडिया के खुले बाज़ार की ओर बढ़ने के एकदम शुरुआती दिन थे. तब से लेकर अब तक भारतीय मीडिया में कई बदलाव आ गए हैं. लेकिन, रवीश को आज भी एनडीटीवी पर, "नमस्कार, मैं रवीश कुमार" बोलते हुए देखा जा सकता है. बस बदला है तो ओहदा, रिपोर्टर से एंकर और एंकर से संपादक.
पत्रकारिता में हीरोइज़्म नहीं ढूंढा जाता है. न ही पत्रकारिता सेलिब्रिटी का तमगा देती है. लेकिन, यह हम जनता ही हैं जो किसी को राजा भोज कहती है तो किसी को गंगू तेली. हमारी इस आदत ने पत्रकारिता तक को नहीं बख़्शा. जो कि एक अच्छा अभ्यास नहीं कहा जा सकता.
अपने पच्चीस बरस की पत्रकारिता में रवीश कुमार को कई पुरस्कारों से नवाज़ा गया है. जिसमें सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार एशिया का नोबल माना जाने वाला रेमन मैग्सेसे अवार्ड भी शामिल है. उसके अलावा भारत में पत्रकारिता का सर्वोच्च पुरस्कार रामनाथ गोयनका, गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ हिंदी समाचार एंकर, गौरी लंकेश पुरस्कार आदि शामिल हैं. सन् 2016 में इंडियन एक्सप्रेस ने उनकी ओर से जारी 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में रवीश कुमार को भी स्थान मिला.
लेकिन, पुरस्कारों के साथ-साथ उनका रिश्ता विवादों से भी रहा है. प्राइम टाइम, हम लोग और रवीश की रिपोर्ट जैसे शो चलाने वाले रवीश को उनके ही भाई बृजेश कुमार पांडेय के संदर्भ में जो कि बिहार कांग्रेस से जुड़े हैं, को लेकर आलोचना झेलनी पड़ी. इसके अलावा उन पर भारतीय मीडिया से जुड़े होने के बावजूद, ढाँचे की खस्ताहाल हालत को लेकर आवाज़ उठाने पर भी आलोचना की जाती रही है. इसी को लेकर वे बार-बार 'टीवी मत देखो' लाइव शो में कहते भी रहे हैं.
दिल्ली के शुरुआती दिनों में ही रवीश की मुलाक़ात नयना दास गुप्ता से हुई और वह मुलाक़ात बाद में दोस्ती के रास्तों से होते हुए प्रेम में बदल गयी। आज दोनों की दो बेटियाँ हैं। इस बीच रवीश की पाँच किताबें भी बाहर आ चुकी हैं। जिनमें पत्रकारिता, लोकतंत्र के अलावा एक लप्रेक भी है, 'इश्क़ में शहर होना'। जिसे काफ़ी पसंद किया गया है। इन छोटी प्रेम कहानियों में दो प्रेमी दिल्ली में एकांत तलाशते हैं। उनकी चाह बस उतनी-सी जगह की पूर्ति को लेकर होती है जहाँ वे दोनों एक दूसरे से पस्य बैठ कर बतिया सके और जब वे बात करते हैं तब उनके संवादों के साथ-साथ दिल्ली खुलती चली जाती है।
"चलो न इश्क के लिए कुछ करते हैं. आमतौर पर पीपल के पेड़ के नीचे कब तक छिपते रहेंगे हम? जामुन भी गिरता है तो लगता है किसी खाप की गोली लग रही है."
( इश्क़ में शहर होना )