बे-सहारा लोक कलाकारों को छत देने वाले देवीलाल सामर
देवीलाल सामर ने उन लोगों आश्रय दिया जो धीरे-धीरे अपना अस्तित्व खोते जा रहे थे. यह देवीलाल सामर की दूरदृष्टि का ही कमाल था कि आज लोक कला मंडल विश्वभर में कठपुतली और उनके साथ जादूगरी करते कलाकारों के नाम से जाना जाता है.
राजस्थान भ्रमण के दौरान, उन्हें एक बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे मिला. उसके हाथ में एक कठपुतली थी, पुरानी और यहाँ-वहाँ से फटी हुई. वह आदमी उसी कठपुतली के सहारे उस सड़क के किनारे बैठकर आने-जाने वालों का मन बहलाकर भीख मांग रहा था. इस घटना ने देवीलाल सामर को झकझोर कर रख दिया. एक कलाकार की ऐसी हालत उनसे देखी नहीं गयी. वे कुछ समय तक वहाँ ठहरे रहे. समय देखकर वे उस बूढ़े आदमी के पास गए और कुछ बातचीत की तो मालूम चला - वह व्यक्ति एक समय प्रतिष्ठित कलाकार था. लेकिन, बदलते समय के साथ, टीवी-रेडियो का ज़माना आया तो कठपुतलियों का खेल धीरे-धीरे कम होने लगा. जब खाने-पीने तक की दिक्कत पैदा होने लगी तो उस आदमी ने अपनी कठपुतलियाँ एक-एक कर व्यापारी के पास गिरवी रखना शुरू कर दिया और अब बा स यही एक कठपुतली उसके पास बची थी जिसके सहारे वह अपना पेट पाल रहा था. देवीलाल सामर ने अपनी जब में रखे 40 रुपये उस बूढ़े कलाकार को दिए और कहा कि वह इससे अपनी कठपुतलियाँ आज़ाद करवा ले. लेकिन, कहानी यहीं ख़त्म नहीं हुई.
पद्म श्री देवीलाल सामर का जन्म 30 जुलाई, 1911 में उदयपुर के ओसवाल परिवार में हुआ. उनका बचपन से ही लोक कलाओं, नृत्य, नाटक और कठपुतलियों में मन रमता था. इसका नतीजा यह हुआ कि वे राजस्थान के प्रतिष्ठित विद्यालय ‘विद्या-भवन’ में 10 सालों तक संगीत-नृत्य-भाषा के अध्यापक रहे. उनके इस रुझान के कारण वे उदयपुर के आसपास के गाँवों में घूम-घूम कर लोक कलाकारों से मिलते रहते थे. अरावली से घिरे होने के कारण उदयपुर हस्तकलाओं का गढ़ था. वहाँ लकड़ी के सामान ख़ूब बनते थे और उन्हीं में कठपुतलियाँ भी शामिल थीं. लोक कलाओं में दिलचस्पी के चलते कठपुतलियाँ उनमें रच-बस गयी, पता ही नहीं चला और उन्हीं दिनों उन्हें वह बूढ़ा कलाकार मिला, जिसे सड़क किनारे भीख माँगनी पड़ रही थी.
स्थानीय कलाओं और कलाकारों को उन दिनों, ख़ासकर राजस्थान में, उतनी इज्ज़त नहीं दी जाती थी. वे कलाकार अक्सर समाज के बनाए ढाँचे में निचली सीढ़ी से आते थे. इस वजह से उन्हें हीन दृष्टी से देखा जाता था. यदि कोई ऊँची जाति का भी कला को चुनता तो वह भी टिप्पणियों का शिकार हो जाता था. देवीलाल सामर के सामने चुनौती थी कि कैसे इस सोच को बदला जाए? ताकि इज्ज़त तो मिले ही साथ में आमदनी भी शुरू हो जाए. 42 की उम्र में देवीलाल सामर ने शिक्षक की भूमिका छोड़ देने का निश्चय किया और पूरी तरह से ख़ुद को इस काम में लगा लिया. यह उन्हीं की मेहनत और स्थानीय कलाकारों का उन पर विश्वास का नतीजा रहा कि 1952 में उदयपुर शहर के बीचों-बीच भारतीय लोक कला मंडल की स्थापना हुई. इस तरह का उस वक़्त देश में यह पहला संस्थान था जो लोक कलाओं को आश्रय देता था.
इसके बाद उन्होंने स्थानीय कलाकारों को सूचीबद्ध करने का काम किया. उन्होंने उस सूचि सरकार के पास भेजा और अपील की, कि इन कलाकारों को रहने के लिए ज़मीन दी जाए. उन्होंने कला मंडल में उन कलाकारों की एक के बाद एक प्रस्तुतियाँ रखवाई और देखते ही देखते लोक कला मंडल देश-विदेश में कला के केंद्र के रूप में उभरने लगा जिसका फ़ायदा उन कलाकारों को भी हुआ और वे टीवी, रेडियो, रंगमंच और शिक्षण संस्थाओं से जुड़ने लगे.
देवीलाल सामर को इस काम के लिए 1968 में पद्म श्री से नवाज़ा गया. आज उनकी मूर्ति लोक कला मंडल के गेट पर लगी है जिसे आज भी स्थानीय लोक कलाकार आते-जाते पूजता है. लोक कला मंडल की ख्याति इस बात से लगाईं जा सकती है कि हर शाम वहाँ कठपुतली की प्रस्तुति होती है जो अक्सर हाउसफुल रहता है.