भारत की पहली महिला पायलट ‘उषा सुंदरम’ की कहानी
उषा सुंदरम ऐसा नाम है जिसे कम ही लोग जानते हैं. लेकिन, वह भारत की पहली महिला पायलट रही हैं. वे इतनी कुशल हवाई जहाज चालक थीं कि उस समय राष्ट्रपति से लेकर गृहमंत्री यहाँ तक कि मैसूर का राज-परिवार भी उन्हीं के साथ हवाई यात्रा पर निकलना पसंद करता था.
आज़ादी के कुछ साल पहले से ही भारतीय नेताओं की सक्रियता बढ़ गयी थी. उन नामों में सरदार वल्लभ भाई पटेल, जवाहर लाल नेहरु जैसे नाम प्रमुख थे. जब भारत आज़ाद हुआ तब पूरा देश छोटी-बड़ी रियासतों में बँटा हुआ था. उन्हें एकजुट करने की ज़िम्मेदारी सरदार पटेल के ऊपर थी, जिन्हें कूटनीति का विशेषज्ञ माना जाता था और सरदार पटेल को देशभर में एक जगह से दूसरी जगह तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी सुंदरम दम्पति पर थी. सरदार पटेल को सबसे ज़्यादा आश्चर्यजनक लगता था कि इस लड़की ने अभी तक 20 बसंत भी पूरे नहीं देखे और आत्मविश्वास ऐसा कि देश के दिग्गज नेताओं को हवाई यात्रा करवा लेती है.
कहानी शुरू होती है 1941 से जब वी. सुंदरम और उषा सुंदरम शादी के बंधन में बंधे. वी. सुंदरम को उससे पहले तक 6 साल से ऊपर हवाई जहाज उड़ाने का अनुभव था. उसके अलावा वह उस समय ‘मद्रास फ्लाइंग क्लब’ में प्रशिक्षक की भूमिका में थे. शादी के बाद दोनों बैंगलोर के सैंट मार्क रोड स्थित एक छोटे बंगले में रहने आ गए और यहीं से शुरू हुआ भारत की पहली महिला पायलट का सफ़र. उषा सुंदरम के पति वी.सुंदरम मैसूर रियासत में सिविल विमानन विभाग में अध्यक्ष पद पर चुन लिए गए. उसके बाद वे जक्कुर स्थित गवर्नमेंट फ्लाइंग ट्रेनिंग स्कूल के प्रिंसिपल भी बने. को-पायलट बन अपने पति के साथ-साथ बारीकियाँ सीख रही उषा ने 1949 में गवर्नमेंट फ्लाइंग ट्रेनिंग स्कूल से स्नातक की पढ़ाई कर, पहली भारतीय महिला पायलट बनने का गौरव हासिल किया. बतौर पायलट उनकी शरुआत मद्रास से सीलोन (श्रीलंका) तक हवाई डाक उड़ाने के रूप में हुई. लेकिन उनकी ग़ज़ब की प्रतिभा का ही कमाल था कि वे पहले तो मैसूर के राजा की व्यक्तिगत पायलट बनी और फिर उसके बाद आज़ाद भारत के शीर्ष नेताओं की पायलट. उन दिनों उनकी भूमिका सिर्फ़ नताओं को ही यहाँ से वहाँ पहुँचाने की नहीं थी. बल्कि वे विभाजन की आग में जल रहे भारत और पाकिस्तान के आपसी तनाव के बीच आम लोगों को हवाई जहाज से बचाने का भी काम कर रही थी. उस समय उषा सुंदरम ने अपनी उम्र के दो दशक भी पूरे नहीं किए थे और वह किसी अनुभवी इंसान की तरह इस तरह जुटी हुई थी जैसे अपने साथ ज़िंदगी के चालीस-पचास सालों का अनुभव लेकर चल रही हो. यह सब देख डॉ. राजेंद्र प्रसाद से लेकर, नेहरु, पटेल सब दिग्गज नेता आश्चर्य करते थे. इसकी वजह से उषा सुंदरम की भारतीय राजनीति के पहली पंक्ति के नेताओं के साथ अच्छी-खासी दोस्ती हो गई.
उनके संक्षिप्त हवाई जीवन का सबसे बड़ा लम्हा तब आया जब उन्होंने मद्रास सरकार के लिए ख़रीदे गए उस समय के सबसे महत्वपूर्ण जहाजों में से एक डी हेवीलैंड डव को अपने पति के साथ लंदन से बॉम्बे, पेरिस-कराची-बग़दाद के रस्ते होते हुए महज़ 27 घंटों में ला खड़ा किया. सिंगल-पिस्टन वाले एयरक्राफ्ट का यह रिकॉर्ड आज तक कोई नहीं तोड़ सका है. वे उस समय सिर्फ़ 22 साल कि थीं. उस उड़ान के समय ज़मीन से 30,000 फ़ीट की ऊँचाई पर उड़ते हुए उन्होंने माना कि उड़ने के लिए पुरुष-महिला जैसी बहस की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, सभी उड़ना चाहते हैं और सभी को अधिकार भी है. दोनों दम्पति 1945 से 1951 तक कॉकपिट में साथ रहे. 1952 में उषा सुंदरम ने अपने बच्चों को समय देने के लिए, समय से पहले सन्यास ले लिया. उसके बाद उन्होंने अपने बेटे चिन्नी कृष्णा के साथ ब्लू क्रॉस सोसाइटी की स्थापना की, जिसका उद्देश्य जानवरों की देखभाल करना था. 5 अप्रैल, 2010 को वे 86 की उम्र में एक लंबी उड़ान पर चली गयी, जहाँ से वापस लौट आना असंभव ही है.