मैती: उत्तराखंड के पहाड़ों से निकला एक पर्यावरण आंदोलन

उत्तराखंड में जंगल बचाने के लिए सत्तर के दशक में चिपको आंदोलन शुरू हुआ। तब सरकारी ठेकेदार जिन पेड़ों को काटने लगते थे, उन पर महिलाएँ चिपक जाती थीं। मैती आंदोलन भी पेड़ और पर्यावरण बचाने के लिए है, मगर एक अलग तरीके से। इसकी शुरुआत एक सरकारी स्कूल शिक्षक कल्याण सिंह रावत ने की, जिन्हें 2018 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मैती आंदोलन का नारा है - खुशी के हर अवसर पर एक पौधा लगाइए।
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उत्तराखंड में मैती आंदोलन के तहत दूल्हा-दुल्हन से पौधा लगवाया जाता है। (इंटरनेट चित्र)

उत्तराखंड की गढ़वाली-कुमाऊँनी बोलियों में ‘मैत’ का मतलब होता है मायका। मायके वालों को ‘मैती’ कहते हैं। ब्याही बेटियों के लिए मैत हमेशा विरह का प्रतीक रहा है। विवाह के साथ ‘मैत’ छूट जाता है। मैत की यादें लेकर दुल्हन ससुराल चली जाती है।

इसी प्रतीक को आधार बनाकर मैती आंदोलन शुरू हुआ। बात 1994-95 की है। उन दिनों एक तरफ उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने का आंदोलन चल रहा था। महीनों सरकारी स्कूल-कॉलेज और दफ़्तर बंद रहे। दूसरी ओर स्कूल टीचर कल्याण सिंह रावत पर्यावरण आंदोलन का एक नया अध्याय लिखने में जुटे थे।

उन्होंने नया विचार दिया। सात फेरों के बाद क्यों न दूल्हा-दुल्हन से पौधा लगवाया जाए। इसे मायके वाले बेटी की तरह पालें। इस तरह हर बेटी-दामाद के नाम पर एक पेड़ लग जाता है।

पेड़ लगाने के बाद दूल्हे की ओर से दुल्हन की सहेलियों को भेंट दी जाती है। इन्हें मैती बहनें कहते हैं। यानी दूल्हे के जूते चुराने की रस्म हो न हो, पौधा लगाने की रस्म मनाई जाने लगी है।

रावत जी ने एक इंटरव्यू में कहा है:

"जब हम कॉलेज में पढ़ते थे तो चिपको आंदोलन चल रहा था। हम भी इसमें शामिल हुए। बाद में हमने देखा कि सरकार हर साल हरियाली मुहिम चलाती है, करोड़ों रुपए के पौधे रोपे जाते हैं मगर वे पनपते नहीं हैं। इसीलिए सोचा कि क्यों न पौधे लगाने को सामाजिक रिवाजों से जोड़ा जाए। जब मायके से विदा लेती बेटी पौधा लगाएगी तो गाँव में उसका परिवार और दूसरे लोग भी उसे अच्छी तरह पालेंगे। गाँव के हर बेटी-दामाद के नाम पर एक पौधा होगा।"

शुरुआत बस इतने से हुई। यह भी सोच थी- बेटी का लगाया पौधा मायके में पल-बढ़ रहा है तो समझो बेटी भी ससुराल में स्वस्थ-सुखी रहेगी।

चमोली जिले के ग्वालदम क्षेत्र से शुरू हुआ यह विचार फिर दूसरे जिलों में भी फैलने लगा। बात शादियों तक ही सीमित नहीं रही। 1997 में आजादी की 50वीं सालगिरह पर उत्तराखंड के हर गाँव में 50-50 पौधे लगाए गए। कारिगल युद्ध के शहीदों की याद में उछैती गाँव में एक हजार पौधे रोपकर शौर्य वन बनाया गया।

इस आंदोलन बारे में देश-दुनिया के मीडिया में भी जगह मिलने लगी। वर्ल्डवाइड फ़ंड फ़ॉर नेचर-इंडिया (WWF-India) ने उत्तराखंड के तराई इलाके में मैती वन लगाने की शुरुआत की। यह संस्था शादी वाले घर को दो पौधे भेंट करती है। एक फलदार, दूसरा चारे वाला। इन्हें दूल्हा-दुल्हन ही रोपते हैं। आज इस आंदोलन के संदेश को भारत के कई राज्यों में अपनाया जा रहा है। विदेशों में भी इसकी गूँज हैं। इस बारे में सुनकर कनाडा की पूर्व विदेश मंत्री फ्लोरा मैकडोनल्ड 2015 में अपनी मृत्यु से पहले उत्तराखंड आईं। गोचर में वह रावत जी से मिली थीं।

मैती का नारा है - खुशी के हर अवसर पर एक पौधा लगाइए। इंडोनेशिया में शादी से पहले लड़कों के लिए पेड़ लगाना कानूनन जरूरी बन चुका है। जलवायु परिवर्तन से जूझ रही दुनिया के लिए ऐसे कदम उठाना जरूरी बन चुका है।

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