राजधानी कलकत्ता से बदलकर हुई दिल्ली

दिल्ली के बारे में किसी ने कहा था कि यह शहर सात बार उजड़ा और बसा है। किसी ने नहीं सोचा था कि देश दुबारा दिल्ली से चलेगा! राजधानी बनते ही दिल्ली ने इस तरीके से दौड़ लगाई कि कुछ ही सालों में वह मुंबई, कलकत्ता, मद्रास के बराबर आ गया।
चित्र साभार : टाइम्स ऑफ़ इंडिया

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हिंदी में राजधानी शब्द संस्कृत से आया है। राजधानी आमतौर पर संघटक क्षेत्र का सबसे बड़ा शहर होता है। इसका अर्थ निकलता है कि किसी भी राज्य या राष्ट्र की सर्वोच्च जगह जहाँ से स्थानीय सरकार काम करती हो। राजधानी मिसाली तौर पर ऐसा शहर है जहाँ सरकार की कार्यप्रणाली से जुड़े दफ़्तर या सम्मेलनों के लिए जगह मौजूद हों जो सामान्यतः कानून या संविधान द्वारा निर्धारित होती है।

कलकत्ता से दिल्ली तक का सफ़र : -

बात उस समय की है जब हिन्दुस्तान विभाजित नहीं हुआ था। तब आज के भारत की सीमा पाकिस्तान और बर्मा तक फैली थी। वर्ष था, सन् 1772, जब कलकत्ता ब्रिटिश इंडिया की राजधानी घोषित हुई। इसके साथ ही बंगाल की तत्कालीन राजधानी मुर्शिदाबाद से सभी महत्वपूर्ण कार्यालयों को कलकत्ता स्थानांतरित कर दिया गया। बंगाल वही धरती है जहाँ ब्रिटिश सरकार को पनाह मिली और यहीं ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना भी हुई। यही एक कारण था कि कलकत्ता को उस समय भारत की राजधानी चुना। इसी अंग्रेज़ी हुकूमत में भारतीय इतिहास में एक और ऐतेहासिक घटना जुड़ी और वह थी राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित होना। सन् 1905 में शुरू हुए बंगाल विभाजन ने राजधानी को स्थानांतरित करने के निर्णय पर और मुहर लगा दी।

11 दिसंबर, 1911 के दिन अंग्रेज़ी हुकूमत ने 'दिल्ली दरबार' का आयोजन किया। उसी दरबार में जॉर्ज पंचम ने यह प्रस्ताव रखा कि हिन्दुस्तान की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली कर दी जाए। इस प्रस्ताव के बाद ऐसा देखने को मिला जैसे सभी अंग्रेज़ अधिकारी यही चाहते थे और इस प्रस्ताव को आपसी सहमती के साथ लागू कर दिया गया। लेकिन, प्रश्न उठता है कि आख़िर दिल्ली ही क्यों? जबकि उस समय मुंबई, लखनऊ, मद्रास जैसे शहर दिल्ली से कहीं आगे थे, हर क्षेत्र में। फिर भी अंग्रेज़ी हुकूमत ने दिल्ली ही क्यों चुना?

कलकत्ता से दिल्ली को राजधानी बनाए जाने के पीछे बहुत से कारण थे। उनमें से एक, ब्रिटिशर्स के आने से पहले तक जितने भी राजा-महाराजा या बादशाह हुए उन्होंने दिल्ली से ही राज किया और दूसरा, उस समय के भारत की भौगोलिक दशा के अनुसार दिल्ली मध्य में पड़ता था। इन सब के अलावा एक प्रमुख कारण और भी था कि भारतीय राष्ट्रवादी विरोध के बावजूद 1905 में बंगाल का विभाजन किया गया। इसके बाद कलकत्ता में हिंसा और उत्पात के बढ़ने कि सम्भावना और बंगाल से तूल पकड़ती स्वराज की मांग के मध्यनज़र यह फ़ैसला लिया गया।

उसी दौरान जिस जगह अंग्रेज़ी हुकूमत कि जड़े पनपी वहीं उसका कमज़ोर होना शुरू हो गया। लेकिन, अंग्रेज़ी सरकार ने इसका हल ढूँढ लिया था और राजनीतिक तरीके से यह विवाद सुलझा लिया। एक भव्य आयोजन के बीच, राजधानी बदलने की घोषणा हुई और इसे भारतीय हित में बता दिया।

आख़िरकार, बीस साल के लम्बे इंतज़ार के बाद 13 फ़रवरी, 1941 को लार्ड इरविन ने आसपास के और भी क्षेत्रों को लेते हुए वर्तमान दिल्ली की तस्वीर स्पष्ट की।

12 दिसमबर, 1912 यानि अगले ही दिन की सुबह 80,000 लोगों की भीड़ के सामने ब्रिटेन के महाराजा जॉर्ज पंचम ने जब यह घोषणा की, कि दिल्ली हिन्दुस्तान की राजधानी है। यह सब होते-होते एल लम्बा वक़्त गुज़र गया। सन् 1931 में उस समय के वायसराय और गवर्नर जनरल लार्ड इरविन ने दिल्ली का राजधानी के रूप में विधिवत उद्घाटन किया। ब्रिटिश आर्किटेक्ट एडविन लुटियंस और सर हर्बट बेकर को दिल्ली को साकार करने का ज़िम्मा सौंपा गया। हालाँकि, जिस टाइमलाइन में दिल्ली को बनना था वह विश्वयुद्ध के चलते उस समय अवधि में पूरा नहीं हो सका। इस कड़ी में आर्किटेक्ट ने उस समय की दिल्ली के दक्षिणी हिस्से जो शाहजहानाबाद के नाम से जाना जाता था, के दक्षिणी मैदानों को चुना और वहीं पर वायसराय हाउस ( पार्लियामेंट हाउस ) और नेशनल वॉर मेमोरियल ( इंडिया गेट )भी बनाया गया।

चित्र साभार : टाइम्स ऑफ़ इंडिया

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