रोशनी हमारे बीच नहीं रही
इस दिन 1964 में देश को दूसरा सबसे बड़ा झटका लगा था। देश अभी तक गाँधी जी को खोने के दुख से उभर भी नहीं पाया था की देश ने अपना पहला प्रधानमंत्री भी खो दिया। पैरालिटिक अटैक और हार्ट अटैक के कारण हमने जवाहरलाल नेहरू जी को खो दिया।
1964 में 27 मई शाम अपने साथ जो बुरी ख़बर लाई थी उससे पूरा देश दुख के उसी सागर में डूब गया जिसमें से महात्मा गाँधी के जाने के बाद वह बड़ी मुश्किल से निकला था। देश के पहले प्रधानमंत्री हमारे बीच में नहीं रहे। यह ख़बर लोगों के लिए सदमें से कम नहीं थी।
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू दिन-ब-दिन कमज़ोर होते जा रहे थे। उनका वजन घटता जा रहा है सब इसे उम्र का इशारा मान रहे थे लेकिन किसी को क्या पता था की यह उस घड़ी का इशारा था जिसका इंतेज़ार किसी को नहीं था।
अपनी मृत्यु से लगभग 1 हफ़्ते पहले नेहरू जी ने एक इंटरव्यू में कहा था 'मैं लंबा जीयूंगा'।
मृत्यु से एक रात पहले ही वो देहरादून से लौटे से। वह अपनी बेटी के साथ 4 दिन के अवकाश पर देहरादून गए थे। देहरादून जाते समय भी उनकी तबियत ठीक नहीं थी। जो लोग उनके साथ थे, उनके अनुसार उनके बाएं हाथ और पैर में दर्द था।
26 मई को नेहरू दिल्ली पहुँचे। उनके सेवक नाथूराम के अनुसार उस रात नेहरू की तबीयत बहुत ज़्यादा खराब थी। वह हाथ, पीठ और कंधे के दर्द से परेशान थे।
27 मई की सुबह अपने साथ बुरी ख़बर लेकर आई। देश के प्रधानमंत्री को पहले पैरालिटिक अटैक आया और फिर हार्ट अटैक, जिससे उनका शरीर कोमा में चला गया। डॉक्टरों ने अपनी पूरी जान लगा दी नेहरू जी को बचाने में लेकिन वह नाकामयाब रहे।
तब संसद का सत्र चल रहा था। सभी नेहरू जी का इंतेज़ार कर रहे थे की तभी कोयम्बटूर सुब्रह्मणियम संसद में पहुँचे। गाँधी जी की मृत्यु की ख़बर देते हुए संसद में नेहरू जी ने कहा था 'द लाइट इस गोन' अर्थात रोशनी हमारे बीच नहीं रही। ठीक उसी प्रकार कोयम्बटूर सुब्रह्मणियम न नेहरू जी की मृत्यु के बारे संसद को सूचित करते हुए कहा की
द लाइट इस गोन (रोशनी हमारे बीच नहीं रही)।
संसद की कार्यवाही तुरंत स्थगित कर दी गई। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा बड़ा समाचार पत्र होगा जिसने नेहरू जी की मृत्यु की ख़बर न छापी हो।
नेहरू जी भारत के लिए अँधेरे में रोशनी की किरण के समान थे इसी कारण से उनकी मृत्यु के बाद देश के लोगों का अपना भविष्य अंधकारमय प्रतीत होने लगा।
यही कारण था की नेहरू जी की मृत्यु के बाद तरह तरह की अफवाहें उड़ने लगी। आम लोग को यह डर था की कहीं देश वापस से टुकड़ो में न बट जाए जिसे नेहरू जी ने इतनी मुश्किल से जोड़ा था।
लेकिन स्थिति को भारत के मज़बूत लोकतंत्र और सविधान ने संभाल लिया। अगर कुछ नहीं संभल पाया तो वह थी हमारे देश के लोगों की भावनाएँ। जो गाँधी जी और नेहरू जी को भगवान का दर्जा देते थे। उन दोनों के जाने से देश जैसे अनाथ हो गया था। नेहरू जी की मृत्यु पर रोती हुई भीड़ उनके जीवन की सफलताओं और कुर्बानियों की बंया कर रही थी। लोगों के आँसूओ में न केवल नेहरू के लिए प्रेम था बल्कि आदर भी था। इतना प्रेम और आदर शायद ही किसी नेता को अपने जीवन में मिला होगा।