स्वतंत्रता सेनानी के घर जन्मी भावी प्रधानमंत्री
पार्टी ने उन्हें कठपुतली मानकर सत्ता के शिखर पर बिठाया, लेकिन बाद में उसके इशारों पर पार्टी ही नहीं बल्कि देश भी नाचा। इंदिरा गलतियों का सिलसिला भी है और कामयाबी की मिसाल भी।
भारतीय राजनीतिक राजवंशों में सबसे प्रसिद्ध नेहरू-गांधी परिवार रहा है। जो आजादी से पहले के वर्षों में न केवल कांग्रेस पार्टी के कामकाज में सक्रिय भागीदार रहे हैं बल्कि भारत की मुख्यधारा की राजनीति में एक प्रमुख खिलाड़ी भी रहे हैं। नेहरू-गांधी ने राजनीति को कई बड़े नेता दिए है, जिनमें एक स्त्री भी थी। कोई उन्हें चतुर मानता था तो कुछ के लिए वह महान थी। वह भारत की माननीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी थीं।
भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा प्रियदर्शिनी गांधी को बहुत कम उम्र से ही भारतीय राजनीतिक परिदृश्य की जानकारी थी। इलाहाबाद में उनका बचपन का घर, 'आनंद भवन', गांधी के आश्रम के ठीक बगल में था, जहाँ उन्होंने कई महान नेताओं से मुलाकात की।
वह बहुत शांत और अंतर्मुखी थी, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के दौरान भी उनके स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया। जब वह भारत लौटीं, तो वह भारतीय राजनीति का हिस्सा बनी। शायद राजनीति उनके खून में थी या फिर यह कहें की वह अपने पिता की विरासत को संभालना चाहती थी इसीलिए राजनीति में आई।
2 फरवरी, 1959 को, उन्हें सर्वसम्मति से कांग्रेस के पार्टी अध्यक्ष के रूप में चुना गया। इसने राजनीति में उनके प्रवेश के साथ-साथ एक नेहरू से दूसरे नेहरू में शासन के हस्तांतरण को चिह्नित किया।
दुर्भाग्य से, उन्हें अगले वर्ष 1960 में अपने पति, फिरोज गांधी (फिरोज जहांगीर गैंडी) की मृत्यु के दुख का सामना करना पड़ा। फिरोज गांधी से उनकी मुलाकात ब्रिटेन में ही हुई थी। वहीं से शुरू हुई दोनों की लव स्टोरी। उन्होंने शादी करने का फैसला किया लेकिन उनके पिता जवाहरलाल नेहरू इस रिश्ते के खिलाफ थे लेकिन बाद में गांधी जी के समझाने पर वे राजी हो गए।
उनकी मृत्यु इंदिरा के लिए एक बड़ा झटका था, क्योंकि वह पहले ही 18 साल की कम उम्र में अपनी मां को खोने का भारी भावनात्मक बोझ उठा चुकी थीं। दरअसल, उनके पति फिरोज ने उनके जीवन के इस कठिन समय में उनकी मदद की थी। फिरोज को खोने के दुख से वह पूरी तरह उभरी भी नहीं थी कि 1964 में महज 4 साल के अंदर ही उनके पिता जवाहरलाल नेहरू भी इस दुनिया से चले गए। फिर भी इंदिरा ने इन दुःखों का असर अपने राजनीतिक करियर पर नहीं पड़ने दिया।
1966 में लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद, उन्होंने भारत की पहली महिला प्रधान मंत्री के रूप में पदभार संभाला। हालाँकि उन्हें वरिष्ठ नेताओं ने केवल यह सोचकर प्रधानमंत्री पद के लिए चुना था कि वह वरिष्ठ नेताओं के हाथों की कठपुतली बनी रहेंगी, लेकिन इंदिरा उन महिलाओं में से नहीं थीं जो किसी के निर्देशों का पालन करें, वह अपने फैसले लेना बखूबी जानती थी। यही कारण था कि कई वरिष्ठ नेता थे जो उनसे नाराज हो गए और कांग्रेस पार्टी दो भागों में बंट गई।
इंदिरा गांधी का राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा था - उन्हें अपनी पार्टी के भीतर से प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, फिर भी उन्होंने प्रधान मंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने और अपनी शक्ति को मजबूत करने के लिए पर्याप्त वोट हासिल करने में सफल रही।
उन्होंने अपने शासन की शुरुआत में एक गंभीर कृषि संकट का सामना किया और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान सत्ता में आई।
आज इंदिरा गांधी की जो छवि है वह संभवतः 1975 की आपातकालीन अवधि से जुड़ी हुई है। जब लाखों लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें कई राजनैतिक कार्यकर्त्ता और बड़े नेता भी शामिल थे। प्रेस पर पाबंदिया लगा दी गई। सत्ताधारी दल द्वारा पुलिस और प्रशासन को राजनीतिक औजार के रूप में इस्तेमाल किया गया। कुछ समकालीनों ने तो यहां तक कह दिया था कि आपातकाल के दौरान देश में लोकतंत्र की मृत्यु हो गई है। उन्होंने आपातकाल की घोषणा करने के अगले दिन आकाशवाणी से देश को सम्बोधित करते हुए कहा,"लोकतंत्र के नाम पर खुद लोकतंत्र की राह रोकने की कोशिश की जा रही है। वैधानिक रूप से निर्वाचित सरकार को काम करने नहीं दिया जा रहा।...... आंदोलनों से माहौल सरगर्म है और इसके नतीजन हिंसक घटनाएँ हो रही है.... विघटनकारी ताकतों का खुला खेल जारी है और साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर खतरा मंडरा रहा है। अगर सचमुच कोई सरकार है, तो वह कैसे हाथ बाँधकर खड़ी रहे और देश की स्थिरता को खतरे में पड़ता देखती रहे ? चंद लोगों की कारस्तानी से विशाल आबादी के अधिकारों को खतरा पहुँच रहा है।"
आपातकाल समाप्त होने के बाद इंदिरा की भारी आलोचना हुई थी। अगले लोकसभा के चुनावों में विपक्ष ने पूरा चुनाव 'लोकतंत्र बचाओ' के नारे पर लड़ा। इंदिरा गांधी चुनाव हार गई, कांग्रेस विरोधी दलों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई। जनता दल को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिली और कांग्रेस केवल 157 सीटों पर सिमट गई। यह कांग्रेस के लिए एक बड़ा झटका था। जिसके बाद उन्हें कुछ समय के लिए जेल में डाल दिया गया।
लेकिन जनता पार्टी अपने आंतरिक संघर्षों से लड़ने में विफल रही और वह 1980 तक अपनी सत्ता फिर से हासिल करने में सक्षम हुई, लेकिन यह एक अल्पकालिक प्रयास साबित हुआ, क्योंकि 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार (स्वर्ण मंदिर, अमृतसर की जबरन सैन्य घेराबंदी) के प्रतिशोध में उनके ही अंगरक्षकों द्वारा उनकी हत्या कर दी।
उनकी हत्या से कांग्रेस को बड़ी सहानुभूति प्राप्त हुई और राजीव गांधी सत्ता में आए। उन्होंने जो परम्परा शुरू की वह आज तक कांग्रेस में जारी है। धीरे-धीरे कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी परिवार के हाथ में आ गई। वह नारी शक्ति की एक बेहतरीन मिसाल थीं और भारत को उनके रूप में पहली महिला प्रधानमंत्री मिली, यह भारत जैसे विकासशील देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि थी।